कविवर देव अठारहवीं शताब्दी प्रारम्भ करने के साथ सबसे पहले हमारी दृष्टि महाकवि देवदत्त पर पड़ती है। जिस दृष्टि से देखा जाय इनके महा- कवि होने में संदेह नहीं। कहा जाता है इन्होंने बहत्तर अन्थों की रचना की। हिन्दी-भाषा के कवियों में इतने ग्रन्थों की रचना और किसी ने भी की है, इसमें सन्देह है। इनके महत्व और गौरव को देखकर ब्राह्मण जाति के दो विभागों में अबतक द्वंद्व चल रहा है। कुछ लोग सनाढ्य कहकर इन्हें अपनी ओर खींचते हैं और कोई कान्यकुब्ज कह- कर इन्हें अपना बनाता है। पंडित शालग्राम शास्त्री ने, थोड़े दिन हुए. माधुरी' में एक लम्बा लेख लिखकर यह प्रतिपादित किया है कि महा- कवि देव सनाढ्य थे। मैं इस विवाद को अच्छा नहीं समझता। वे जो हों, किन्तु हैं ब्राह्मण जाति के और ब्राह्मण जाति के भी न हों तो देखना यह है कि साहित्य में उनका क्या स्थान है । मेरा विचार है कि सब बातों पर दृष्टि रखकर यह कहना पड़ेगा कि ब्रजभाषा का मुख उज्ज्वल करनेवाले जितने महाकवि हुए हैं, उन्हीं में एक अाप भी हैं । एक दो विषयों में कवि-कर्म करके सफलता लाभ करना उतना प्रशंसनीय नहीं, जितना अनेक विषयों पर समभाव से लेखनी चला कर साहित्य-क्षेत्र में कीर्ति
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