कविवर बिहारीलाल ] २३६ [ 'हरिऔध' दोहों का यों भी अधिक प्रचार है और सहृदय जनों पर उनका महत्व अप्रकट नहीं है, इसलिए उनके विषय में अधिक लिखना व्यर्थ है। मैं पहले उनकी रचना आदि पर बहुत कुछ प्रकाश डाल चुका हूँ। इतना फिर और कह देना चाहता हूँ कि कला की दृष्टि से 'बिहारी सतसई' अपना उदाहरण आप है। कुछ लोगों ने बिहारीलाल की श्रृंगार सम्बन्धी रचनाओं पर व्यंग भी किये हैं और इस सूत्र से उनकी मानसिक वृत्ति पर कटाक्ष भी। मतभिन्नता स्वाभाविक है और मनुष्य, अपने विचारों और भावों का अनुचर है। इसलिए मुझको इस विषय में अधिक तर्क-वितर्क वांछनीय नहीं, परन्तु अपने विचारानुसार कुछ, लिख देना भी संगत जान पड़ता है। बिहारीलाल पर किसी-किसी ने यह कटाक्ष किया है कि उनकी दृष्टि सांसारिक भोग-विलास में ही अधिकतर बद्ध रही है। उन्होंने सांसा- रिक वासनाओं और विलासितात्रों का सुन्दर से सुन्दर चित्र खींचकर लोगों की दृष्टि 'अपनी ओर आकर्षित की। न तो उस 'सत्यं शिवं सुन्दरं' का तत्व समझा और न उसकी अलौकिक और लोकोत्तर लीलाओं और रहस्यों का अनुभव प्राप्त करने की यथार्थ चेष्टा की। वाह्य जगत् से अन्तर्जगत् अधिक विशाल और मनोरम है। यदि वे इसमें प्रवेश करते तो उनको वे महान् रत्न प्राप्त होते जिनके सामने उपलब्ध रत्न काँच के समान प्रतीत होते । परन्तु मैं कहूँगा कि न तो उन्होंने अन्तर्जगत् से मुंह मोड़ा और न लोकोत्तर की लोकोत्तरता से ही अलग रहे । क्या स्त्री का सौंदर्य 'सत्यं शिवं सुन्दरम्' नहीं है? कामिनी-कुल के सौंदर्य में क्या ईश्वरीय विभूति का विकास नहीं ? क्या उनकी सृष्टि लोक-मङ्गल की कामना से नहीं हुई ? क्या उनके हाव-भाव, विभ्रम-विलास लोकोपयोगी नहीं ? क्या विधाता ने उनमें इस प्रकार की शक्तियाँ उत्पन्न कर प्रवंचना की ? और क्यों संसार को भ्रान्त बनाया ? मैं समझता हूँ कि कोई तत्वज्ञ इसे न स्वीकार करेगा। यदि यह सत्य है कि संसार की रचना मङ्गल-
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