२३४ कविवर बिहारीलाल ] [ 'हरिऔध भावुक भक्त कभी-कभी मचल जाते हैं और परमात्मा से भी परिहास करने लगते हैं। ऐसा करना उनका विनोद-प्रिय प्रेम है, असंयत भाव नहीं। 'प्रेम लपेटे अटपटे बैन' किसे प्यारे नहीं लगते। इसी प्रकार की एक उक्ति बिहारी की देखिये। वे अपनी कुटिलता को इसलिए प्यार करते हैं जिसमें त्रिभंगीलाल को उनके चित्त में निवास करने में कष्ट न हो, क्योंकि यदि वे उसे सरल बना लेंगे तो वे उसमें सुख से कैसे निवास कर सकेंगे ? कैसा सुन्दर परिहास है। वे कहते हैं:- करौ कुवत जग कुटिलता तजौं न दीन दयाल । दुखी होहुगे सरन चित बसत त्रिभंगीलाल ॥ थैमा सच्चे प्रेम से ही प्राप्त होता है। योकि वह सत्य- स्वरूप है । जिसके हृदय में कपट भरा है उसमें वह अन्तर्यामी कैसे निवास कर सकता है जो शुद्धता का अनुरागी है ? जिसका मानस-पट खुला नहीं, उससे अन्तर्पट के स्वामी से पटे तो कैसे पटे ? इस विषय को बिहारीलाल, देखिये, कितने सुन्दर शब्दों में प्रकट करते हैं:- तौ लगि या मन-सदन में हरि आवै केहि बाट । विकट जटे जौ लौं निपटा खुले न कपट-कपाट ॥ अब कुछ ऐसे पद्य देखिये जिनमें बिहारीलालजी ने सांसारिक जीवन के अनेक परिवर्तनों पर सुन्दर प्रकाश डाला है:- जद्यपि सुंदर सुघर पुनि सगुनौ दीपक देह । तऊ प्रकास करै तितौ भरिये जितो सनेह ॥ जो चाहै चटक न घटे, मैलो होय न मित्त । रज राजस न बुवाइये नेह चीकने चित्त ॥
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