कविता में मनुष्य की संगीतप्रियता को भी प्रतिविम्बित होने का अवसर मिलता है। यह संगीत कविता का वाह्य आवरण है है जिसको धारण कर कविता-कामिनी सहृदयों को प्रहर्षित करने के लिए रंगमंच में प्रवेश करती है। परम्परागत प्रथा के अनुसार हिन्दी में वृत्त ही संगीत कहलाता रहा--छन्दोवद्ध तुकान्त रचना ही संगीतपूरित कहाती है; परन्तु वर्तमान काल के महाकवि श्रद्धेय पं० अयोध्यासिंह जी उपाध्याय ने 'प्रिय-प्रवास' महाकाव्य में अतुकान्त छन्दों का प्रयोग कर एक नयी समस्या हिन्दी-भाषियों के सम्मुख रख दी है।
महाकवि के 'प्रिय-प्रवास' का पारायण करने वाले रसिक समुदाय सर्व सम्मति से उस ग्रंथ-रत्न को संगीतमय मानेंगे, ऐसा मेरा विश्वास है।"
--नन्ददुलारे वाजपेयी
"हमारे सम्मानित महाकवि हरिऔधजी की सबसे बड़ी विशेषता यह है कि इन्होंने घोर असाहित्यिक वातावरण में रहकर अपने साहित्यिक जीवन को गौरवान्वित किया है।....
काव्य-साधना की जो संलग्नता इनमें देखी जाती है वह शायद ही किसी और बूढ़े कवि में देखी जा सके।
इनका महान व्यक्तित्व सर्वथा आडम्बर-शून्य है, ये निष्कपट, निर्लोभ और निरभिमानी तो हैं ही, साथ ही इनकी मिलनसारी भी बड़ी मधुर है। मिलने-जुलने वालों से ये कभी उकताते नहीं, उनके साथ भूल कर भी अप्रिय बर्ताव नहीं करते। अतिथि को सचमुच अपने घर का देवता मानते हैं। छोटा बड़ा, जो इनके पास पहुँच जाय उसे ये सम भाव से अपना लेते हैं। जो इनसे पहली ही बार मिलता है, वह यही अनुभव करता है, कि प्रेम ही इनकी प्राण-शक्ति है।
ऐसा कौन है जो इनके गंभीर मुख मण्डल तथा उन्नत ललाट को देखते ही यह न मान ले कि ये सत्यं शिवं सुन्दरम् की सृष्टि करने वाली प्रतिभा के प्राण-वल्लभ हैं।
--जनार्दन प्रसाद झा 'द्विज'