कविवर बिहारीलाल ] २३० [ 'हरिऔध' उनको पठन कर जहाँ हृदय में अानन्द का स्रोत उमड़ उठता है वहीं विमुग्ध मन नन्दन कानन में विहार करने लगता है। यदि उनकी भारती रस-धारा प्रवाहित करती है तो उनकी भाव-व्यंजना पाठकों पर अमृत- वर्षा करने लगती है। सतसई का शब्द-विन्यास जैसा ही अपूर्व है, वैसा ही विलक्षण उसमें झंकार है। काव्य एवं साहित्य का कोई गुण ऐसा नहीं जो मूर्तिमन्त होकर इस ग्रंथ में विराजमान न हो और कवि-कर्म की ऐसी कोई विभूति नहीं जो इसमें सुविकसित दृष्टिगत न हो । मान- सिक सुकुमार भावों का ऐसा सरस चित्रण किसी साहित्य में है या नहीं, यह नहीं कहा जा सकता। परन्तु जी यही कहता है कि यह मान लिया जाय कि यदि होगा तो ऐसा ही होगा किन्तु यह लोच कहाँ? इस ग्रंथ में शृंगार रस तो प्रवाहित है ही, यत्र-तत्र अनेक सांसारिक विषयों का भी इसमें बड़ा ही मर्म-स्पर्शी वर्णन है। अनेक रहस्यों का इसमें कहीं-कहीं ऐसा निरूपण है जो उसकी स्वाभाविकता का सच्चा चित्र आँखों के सामने ला खड़ा करता है। बिहारीलाल ने अपने पूर्ववर्ती संस्कृत अथवा भाषा के कवियों के भाव कहीं-कहीं लिये हैं । परन्तु उनको ऐसा चमका दिया है कि यह ज्ञात होता है कि घन-पटल से बाहर निकल कर हसता हुआ मयंक सामने आ गया । इनकी सतसई के अनु- करण में और कई सतसइयाँ लिखी गयीं, जिनमें से चन्दन, विक्रम और रामसहाय की अधिक प्रसिद्ध हैं, परन्तु उस बूँद से भेंट कहाँ ! पीतल सोना का सामना नहीं कर सकता। संस्कृत में भी इस सतसई का पूरा अनुवाद' पंडित परमानन्द ने किया है और इसमें कोई सन्देह नहीं कि. उन्होंने कमाल किया है। परन्तु मूल मूल है और अनुवाद अनुवाद । बिहारीलाल की सतसई का आधार कोई विशेष ग्रन्थ है अथवा वह स्वयं उनकी प्रतिभा का विकास है, जब यह विचार किया जाता है तो दृष्टि संस्कृत के 'आर्या-सप्तशती' की एवं गोवर्धन-सप्तशती की ओर आक- र्षित होती है। निस्सन्देह इन ग्रन्थों में भी कवि कर्म का सुन्दर रूप
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