कविवर केशवदास ] २२६ - ['हरिऔध' रहित बना दिया, अर्थात् सदा वे उनके चित्त पर चढ़े रहते हैं । सुमेरु पर्वत अचल है। दूसरे पद्य में उसी के समान उन्होंने महाराज दशरथ को भी अचल बनाया । भाव इसका यह है कि वे स्वकर्त्तव्य-पालन में दृढ़ हैं। दूसरी बात यह है कि यदि वह विविध 'विवुध-जुत' हैं, अर्थात् विविध देवता उस पर रहते हैं, तो महाराज दशरथजी के साथ विविध विद्वान् रहते हैं। 'विवुध' का दोनों अर्थ है देवता और विद्वान् । दूसरे चरण में 'सुदक्षिणा' शब्द का दो अर्थ है । राजा दश- रथ को अपने पूर्व पुरुष 'दिलीप' के समान बनाया गया है। इस उपपत्ति के साथ कि यदि उनके साथ उनकी पत्नी सुदक्षिणा थीं, जिनका उनको बल था, तो उनको भी सुन्दर दक्षिणा का अर्थात् सत्पात्र में दान देने का बल है। तीसरे चरण में उनको सागर के समान कहा है, इसलिए कि दोनों ही 'बाहिनी के पति और गम्भीर हैं। 'बाहिनी' का अर्थ सरिता और सेना दोनों है। इसी चरण में उनको सूर्य के समान अचल कहा है ; इस कारण कि 'छनदान प्रिय' दोनों हैं । इसलिए कि महाराज दशरथ को तो क्षण-क्षण अथवा पर्व-पर्व पर दान देना प्रिय है और सूर्य 'छनदा' ( क्षणदा) न-प्रिय है अर्थात् रात्रि उसको प्यारी नहीं है । चौथे चरण में महाराज दशरथ को उन्होंने गंगा-जल बनाया है, क्योंकि दोनों भगीरथ-पथ-गामी हैं। महाराज दशरथ के पूर्व पुरुष महाराज भगीरथ थे, अतएव उनका भगीरथ-पथावलम्बी होना स्वाभाविक है। इस अंतिम उपमा में बड़ी ही सुन्दर व्यञ्जना है। गंगा-जल का पवित्र और उज्ज्वल अथच सद्भाव के साथ चुपचाप भगी- स्थ-पथावलम्बी होना पुराण-प्रसिद्ध बात है। इस व्यञ्जना द्वारा महाराज दशरथ के भावों को व्यज्जित करके कवि ने कितनी भावुकता दिखलायी है, इसको प्रत्येक हृदयवान भली-भांति समझ सकता है। अन्य उप- माओं में भी इसी प्रकार की व्यंजना है, परन्तु उनका स्पष्टीकरण व्यर्थ विस्तार का हेतु होगा। इस प्रकार के पद्यों से 'रामचन्द्रिका'
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