कविवर केशवदास ] २२५ [ 'हरिऔध' ३-रिझाउ रामपुत्र मोहिं राम लै छुड़ाइ के। ४-अन्न देइ सीख देइ राखि लेइ प्राण जात । ५--हँसि बंधु त्यों दृगदीन । श्रुति नासिका बिनु कीन । ६-कीधौं वह लक्ष्मण होइ नहीं। इसका कारण यही मालूम होता है कि उस काल में हिन्दी भाषा के बड़े-बड़े कवियों का विचार साहित्यिक भाषा को व्यापक बनाने की ओर था। इसलिए वे लोग कम से कम अवधी और ब्रजभाषा में कति- पय आवश्यक और उपयुक्त शब्दों के व्यवहार में कोई भेद नहीं रखना चाहते थे। इस काल के महाकवि सूर, तुलसी और केशव को इसी ढंग में ढला देखा जाता है। उन्होंने अपनी रचना एक विशेष भाषा में ही. अर्थात अवधी या ब्रजभाषा में की है। परन्तु एक दूसरे में इतना विभेद नहीं स्वीकार किया कि उनके प्रचलित शब्दों का व्यवहार विशेष अवस्थात्रों और संकीर्ण स्थलों पर न किया जाय । इन महाकवियों के अतिरिक्त उस काल के अन्य कवियों का झुकाव भी इस ओर देखा जाता है। उनकी रचनाओं को पढ़ने से यह बात ज्ञात होगी। केशवदासजी की रचनाओं में पांडित्य कितना है इसके परि- चय के लिए आप लोग उद्धृत पद्यों में से चौथे पद्य को देखिये । उसमें इस प्रकार के वाक्यों का प्रयोग है जो दो अर्थ रखते हैं। मैं उनको स्पष्ट किये देता हूँ। चौथे पद में उन्होंने महा- राज दशरथ को विधि के समान कहा है, क्योंकि दोनों ही 'विमानी कृत राजहंस' हैं। इसका पहला अर्थ जो विधिपरक है यह है कि राजहंस उनका वाहन ( विमान ) है। दूसरा अर्थ बो महाराज दशरथ- परक है, यह है कि उन्होंने राजाओं की आत्मा ( हंस ) को मान-
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