कविवर केशवदास ] २२१ [ 'हरिऔधर हैं प्रायः शुद्ध रूप में ही लिखने की चेष्टा की है। उसी अवस्था में उनको बदला है जब उनके परिवर्तन से या तो पद्य में कोई सौंदर्य अाता है या अनुप्रास की आवश्यकता उन्हें विवश करती है। गोस्वामी तुलसीदासजी ने ब्रजभाषा और अवधी के नियमों का पूरा पालन किया है। किन्तु जब उन्होंने किसी अन्य प्रान्त का शब्द लिया तो उसको उसी रूप में लिखा। वे रामायण के अरण्य कांड में एक स्थान पर रावण के विषय में लिखते हैं:- 'भणिया' शब्द बुन्देलखण्डी है। 'इत उत चितै चला भणिआई। उसका अर्थ है 'चोर' । 'मणिभाई का अर्थ है 'चोरी। गोस्वामीनी चाहते तो उसको 'भनिभाई अवधी के नियमानुसार बना लेते, परन्तु ऐसा करने में अर्थ-बोध में बाधा पड़ती। एक तो शब्द' दूसरे प्रान्त का, दूसरे यदि वह अपने वास्तव रूप में न हो तो उसका बोध सुलभ कैसे होगा ? इसलिए उसका अपने मुख्य रूप में लिखा जाना ही..युक्ति- संगत था । गोस्वामीजी ने ऐसा ही किया। केशवदासजी की दृष्टि भी इसी बात पर थी, इसीलिए उन्होंने वह मार्ग ग्रहण किया जिसकी चर्चा मैंने अभी की है। कुछ पद्य मैं लिखकर अपने कथन को पुष्ट करना चाहता हूँ। देखिये:- १-'सब शृंगार मनो रति मन्मथ मोहै। २-सबै सिँगार सदेह सकल सुख सुखमा मंडित । ३-मनो शची विधि रची विविध विधि वर्णत पंडित । ४-जाने को केसव केविक बार मैं सेस के सीसन दीन्ह उसासी। ऊपर की दो पंक्तियों में एक में 'शृङ्गार' और दूसरी में 'सिँगार' पाया है। 'शृंगार' संस्कृत का तत्सम शब्द है। अतएव अपने सिद्धा-
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