पृष्ठ:रस साहित्य और समीक्षायें.djvu/२१८

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कविवर केशवदास ] २१६ [ 'हरिऔध शोभा अति शक शरासन में । नाना दुति दीसति है धन में । रत्नावलि सी दिवि द्वार भनो । बरखागम बाँधिय देव मनो। धन घोर घने दसहूं दिसि छाये । मघवा जनु सूरज पै चढ़ि आये । अपराध बिना छिति के तन ताये । तिन पीड़न पीड़ित है उठि धाये। अति गाजत बाजत दुंदुभि मानो । निरघात सबै पविपात बखानो । धनु है यह गौरमदाइन् • नाहीं । सर जाल बहै जलधार बृथाही । - भट चातक दादुर मोर न बोले । चपला चमकै न फिरै खग खोले । दुतिवन्तन को विपदा बहु कीन्हीं। धरनी कह चन्द्रवधू धर दीन्ही । ११-सुभसर सोभै, मुनि मन लोभै । .. सरसिज फूले, अलि रस भूले । जलचर डोले, बहु खग बोलें । . __वरणि न जाही, उर उरमाहीं । १२-आरक्त पत्रा सुभ चित्र पुत्री ___ मनो बिराजै अति चार वेषा। सम्पूर्ण सिंदूर प्रभा बसै धौं गणेश-भाल-स्थल चन्द्र-रेखा। .