कविवर केशवदास ] २१४ .. [ 'हरिऔध' वे कविवर केशवदास के ही कुछ प्राकृतिक वर्णन हैं और वे रामचन्द्रिका ही में मिलते हैं। मैं आगे चलकर इस प्रकार के पद्य अधृत करूंगा। यह कहा जाता है कि प्रबंध-काव्यों को जितना सुशृङ्खलित होना चाहिये रामचंद्रिका वैसी नहीं है। उसमें स्थान-स्थान पर कथा भागों की श्रृंखला टूटती रहती है। दूसरी यह बात कही जाती है कि जैसी भावुकता और सहृदयता चाहिये, वैसी इस ग्रन्थ में नहीं मिलती। ग्रन्थ बड़ा क्लिष्ट भी है। एक-एक पद्यों का तीन-तीन, चार-चार अर्थ प्रकट करने की चेष्टा करने के कारण इस ग्रन्थ की बहुत सी रचनाएँ बड़ी ही गूढ़ और जटिल हो गयी हैं जिससे उनमें प्रसाद गुण का अभाव है । इन विचारों के विषय में मुझे यह कहना है कि किसी भी ग्रन्थ में सर्वाङ्गपूर्णता असम्भव है। उसमें कुछ न कुछ न्यूनता रह ही जाती है। संस्कृत के बड़े-बड़े महाकाव्य भी निर्दोष नहीं रहे। इसके अतिरिक्त अालोचकों की प्रकृति भी एक सी नहीं होनी। रुचि-भिन्नता के कारण किसी को कोई विषय प्यारा लगता है और कोई उसमें अरुचि प्रकट करता है। प्रवृत्ति के अनुसार ही आलोचना भी होती है इसलिए सभी आलो- चनाओं में यथार्थता नहीं होती। उनमें प्रकृतिगंत भावनाओं का विकास भी होता है। इसीलिए एक ही ग्रन्थ के विषय में भिन्न-भिन्न सम्मतियाँ दृष्टिगत होती हैं। केशवदासजी की रामचन्द्रिका के विषय में भी इस प्रकार की विभिन्न अालोचनाएँ हैं। किसी के विशेष विचारों के विषय में मुझे कुछ नहीं कहना है। किन्तु देखना यह है कि रामचन्द्रिका के विषय में उक्त तर्कनाएँ कहाँ तक मान्य हैं। प्रत्येक ग्रन्थकार का कुछ उद्देश्य होता है और उस उद्देश्य के आधार पर ही उसकी रचना प्राधा- रित होती है। केशवदासजी की रचनाओं में जिन्हें प्रसाद गुण देखना हो वे 'कविप्रिया' और 'रसिकप्रिया' को देखें। उनमें जितनी सहृदयता है, उतनी ही सरसता है। जितनी सुन्दर उनकी शब्द विन्यास-प्रणाली है, उतनी ही मधुर है उनकी भाव-व्यञ्जना । रामचन्द्रिका की रचना
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