कविवर केशवदास ] २१३ [ 'हरिऔध' रसिक और 'कविप्रिया' का प्रेमिक अवश्य बनना पड़ता है। इससे इन दोनों ग्रन्थों की महत्ता प्रकट है । जिन्होंने इन दोनों ग्रन्थों को पढ़ा है वे जानते हैं कि इनमें कितनी प्रौढ़ता है। रीति-सम्बन्धी सब विषयों का विशद वर्णन थोड़े में जैसा इन ग्रन्थों में मिलता है, अन्यत्र नहीं। 'रसिक-प्रिया' में भृङ्कार रस सम्बन्धी समस्त विशेषताओं का उल्लेख बड़े पाण्डित्य के साथ किया गया है। कविप्रिया वास्तव में कवि-प्रिया है । कवि के लिए जितनी बातें ज्ञातव्य हैं उनका विशद निरूपण इस ग्रन्थ में है। मेरा विचार है कि केशवदासजी की कवि-प्रतिभा का विकास जैसा इन ग्रन्थों में हुअा, दूसरे ग्रन्थों में नहीं। क्या भाषा, क्या भाव, क्या शब्द-विन्यास, क्या भाव-व्यञ्जना, जिस दृष्टि से देखिये ये दोनों ग्रन्थ अपूर्व हैं। उन्होंने इन दोनों ग्रन्थों के अतिरिक्त और ग्रन्थों की भी रचना की है। उनमें सर्वप्रधान रामचन्द्रिका है। यह प्रबन्ध-काव्य है। इस ग्रन्थ के संवाद ऐसे विलक्षण हैं जो अपने उदाहरण आप हैं । इस ग्रन्थ का प्रकृति-वर्णन भी बड़ा ही पिक है। _____ कहा जाता है कि हिन्दी-संसार के कवियों ने प्रकृति-वर्णन के विषय में बड़ी उपेक्षा की है। उन्होंने जब-जब प्रकृति-वर्णन किया है तब उससे उद्दीपन का कार्य ही लिया है। प्रकृति में जो स्वाभाविकता होती है, प्रकृतिगत जो सौन्दर्य होता है उसमें जो विलक्षणताएँ और मुग्ध- कारिताएँ पायी जाती हैं उनका सच्चा चित्रण हिन्दी-साहित्य में नहीं पाया जाता। किसी नायिका के विरह का अवलम्बन करके ही हिन्दी कवियों और महाकवियों ने प्रकृतिगत विभूतियों का वर्णन किया है। सौन्दर्य-सृष्टि के लिए उन्होंने प्रकृति का निरीक्षण कभी नहीं किया। इस कथन में बहुत कुछ सत्यता का अंश है। कवि-कुलगुरु-वाल्मीकि एवं कविपुंगव कालिदास की रचनाओं में जैसा उच्च कोटि का स्वाभा- विक प्रकृति-वर्णन मिलता है, निस्सन्देह हिन्दी-साहित्य में उसका अभाव है। यदि हिन्दी-संसार के इस कलंक को कोई कुछ धोता है तो
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