अधिक प्रशंसा कर रहे हैं? उसकी भाषा बिलकुल निर्दोष नहीं है, क्योंकि उसमें शब्दों का बे-मेल जोड़ कहीं-कहीं खटकता है, और यद्यपि हम उसकी सरसता और अलंकारिक कुशलता का समुचित सत्कार करने के लिए उत्सुक हैं तो भी यह नहीं कहा जा सकता कि भविष्य में कोई कवि उपाध्याय जी की समता नहीं कर सकेगा। ऐसा नहीं है, हमारा तो दृढ़ विश्वास है कि आगे चलकर हमारे साहित्यकारों में से बहुत से ऐसे भी निकलेंगे जो विश्वतोन्मुखी प्रतिभा और व्योमचुम्बिनी कल्पना से संसार के श्रेष्ठ कवियों की समता का मौर अपने उज्ज्वल मस्तकों पर बँधवायेंगे। हिन्दी साहित्य के पूर्ण विकास का द्योतक 'प्रिय-प्रवास' कदापि नहीं। वह तो केवल शताब्दियों की निशीथ-निशा के बाद उन्नति उषा का दिव्य दूत है; और साहित्य-दृष्टि से इस महाकाव्य का इसी में महत्व है। 'प्रिय-प्रवास' अतुकान्त छन्दों में हिन्दी का प्रथम महाकाव्य है, इसका अर्थ यह है कि पुष्य कवि से लेकर उपाध्याय जी के पूर्व तक किसी भी हिन्दी कवि ने इस विस्तार के साथ अतुकान्त कविता नहीं रची। तुक की नकेल में बँधी हुई हमारी कविता 'कोमलकान्तपदावली' की परिक्रमा करती रही। इस अस्वाभाविक और हानिकारक दासत्व तोड़ कर स्वच्छन्द विचरने का पहले-पहल साहस उपाध्याय जी ने किया।
---वेंकटेशनारायण तिवारी द्वारा 'अभ्युदय'
के अग्रलेख में प्रकाशित
'प्रिय-प्रवास' अहो! प्रिय आपका॥
अमित मोद हुआ चख चित्त को।
सरश स्वादुयुता कविता नयी॥