गोस्वामी तुलसीदास ] २०७ [ 'हरिऔध' भाषात्रों का उच्च से उच्च विकास इन दोनों महाकवियों के द्वारा हुआ। साहित्यिक भाषा में जितना सौन्दर्य-सम्पादन किया जा सकता है इन दोनों महापुरुषों से इनकी रचनाओं में उनकी भी पराकाष्ठा हो गयी। अनुप्रासों और रस एवं भावानुकूल शब्दों का विन्यास जैसा इन कवि- कर्मनिपुण महाकवियों की कृति में पाया जाता है वैसा आज तक की हिन्दी भाषा की समस्त रचनात्रों में नहीं पाया जाता । भविष्य में क्या होगा, इस विषय में कुछ कहना असम्भव है। "जिनको सजीव पंक्तियाँ कहते हैं" वे जितनी इन लोगों की कविताओं में मिलती हैं उतनी अब तक की किसी कविता में नहीं मिल सकी। यदि इन लोगों की शब्द-माला में लालित्य नर्तन करता मिलता है तो भाव सुधा-वर्षण करते हैं । जब किसी भाषा की कविता प्रौढ़ता को प्राप्त होती है उस समय उसमें व्यंजना की प्रधानता हो जाती है। इन लोगों की अधिकांश रचनाओं में भी यही बात देखी जाती हैं-गोस्वामीजी के विषय में योरोपीय या अन्य विद्वानों की जो सम्मतियाँ हैं उम्त कुछ सम्मतियों को मैं नीचे लिखता हूँ। उनके पढ़ने से आप लोगों को ज्ञात होगा कि गोस्वामीजी के विषय में विदेशी विद्वान् भी कितनी उत्तम सम्मति और कितना उच्च भाव रखते हैं। प्रोफेसर मोल्टन यह कहते हैं। "मानव प्रकृति की अत्यन्त सूक्ष्म और गम्भीर ग्रहणशीलता, करुणा से लेकर अानन्द' तक के सम्पूर्ण मनोविकारों के प्रति संवेदन- शीलता, स्थान-स्थान पर मध्यमश्रेणी का भाव जिस पर हँसते हुए महासागर के अनन्त बुबुदों की तरह परिहास क्रीड़ा करता है, कल्पना- शक्ति का स्फुरण जिसमें अनुभव और सृष्टि दोनों एक ही मानसिक क्रिया जान पड़ती हैं, सामञ्जस्य और अनुपात की वह धारणा जो जिसे ही स्पर्श करेगी उसे ही कलात्मक बना देगी; भाषा पर वह अधिकार जो
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