गोस्वामी तुलसीदास ] २०६ [ 'हरिऔध' जुवति, जागु, जुगुति आदि में आप देखेंगे। संज्ञाओं और विशेषणों के अपभ्रंश के अनुसार, उकारान्त प्रयोग के उदाहरण ये शब्द हैं- कपारू, मुहुँ, मीठ, आदि । ह्रस्व का दीर्घ और दीर्घ का ह्रस्व-प्रयोग कम- नीया', 'बाता,' 'जुवति' 'रेख' इत्यादि शब्दों में हुआ है। प्राकृत शब्दों का उसी के रूप में ग्रहण तीय, नाह इत्यादि में है । ब्रजभाषा की रचना में आपको संज्ञाएँ क्रियाएँ दोनों अधिकतर अोकारान्त मिलेंगी और इसी प्रकार अवधी की संज्ञाएँ और क्रियाएँ नियमा- नुकूल अकारान्त पायी जायेगी। उराहनो, बहुरो, पायो, आयो, बड़ो कहब, रहब, होब, देन, राउर इत्यादि इसके प्रमाण हैं। अधिकतर तद्भव शब्द ही दोनों भाषात्रों में आये हैं। परन्तु जहाँ भाषा तत्सम शब्द लाने से ही सुन्दर बनती है, वहाँ गोस्वामीजी ने तत्सम शब्दों का प्रयोग भी किया है । जैसे 'प्रिय', 'कुरूप', 'रिपु', 'अमत्य', 'पल्लव', इत्यादि । मुहावरों का प्रयोग भी उन्होंने अधिकता से किया है, परन्तु विशेषता यह है कि जिस भाषा में मुहावरे आये हैं उनको उसी भाषा के रूप में लिखा है । जैसे 'नयनभरि', 'मुंह लाये', 'मूडहिं चढि', 'जनम भरब', 'नकबानी आयो', 'ठकुरसुहाती', 'बवा सो लुनिय इत्यादि । अवधी में स्त्रीलिङ्ग के साथ सम्बन्ध का चिह्न सदा "के" आता है। गोस्वामीजी की रचना में भी ऐसा ही किया गया है, 'दूध के माखी', 'कै छाँह', इत्यादि इसके सबूत हैं । क्रिया बनाने में विधि के साथ इकार का संयोग किया जाता है। उनकी कविता में भी यह बात मिलती है, जैसे 'भरि' 'फोरि' 'बोरि' इत्यादि । अनुप्रास के लिए तुकान्त में इस 'इ' को दीर्घ भी कर दिया जाता है। उन्होंने भी ऐसा किया है । 'देखिये, 'जानी', 'होई', इत्यादि। ऐसे ही नियम सम्बन्धी अन्य बातें भी आप लोगों को उनमें दृष्टिगत होंगी। सूरदासजी के हाथों में पड़कर ब्रजभाषा और गोस्वामीजी की लेखनी से लिखी जाकर अवधी प्रौढ़ता को प्राप्त हो गयी। इन दोनों
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