पृष्ठ की भाषा ने हमको मोह लिया और किताब न छोड़ी गयी। ज्यों-ज्यों पढ़ते गये त्यों-त्यों आगे बढ़ते गये। रात को देर तक पढ़ते रहे; समाप्त हो जाने पर पुस्तक छूटी और मन में यह चाह रह गयी कि देवहूती और देवस्वरूप का हाल कुछ और पढ़ते। पुस्तक शुरू से आखीर तक एक स्टाइल में लिखी गयी है। हम कह सकते हैं कि ऐसा उत्तम उपन्यास हिन्दी में दूसरा नहीं है। हम आपको बधाई देते हैं।
--काशीप्रसाद जायसवाल
"हम हृदय से प्रिय-प्रवास का साहित्यिक क्षेत्र में स्वागत करते हैं, और उसके रचयिता श्री पं० अयोध्यासिंह उपाध्याय को अतुकान्त छन्दों में इस महाकाव्य के लिखने में उनकी सफलता के लिए बधाई देते हैं। अतुकान्त छन्दों में कविता रचने का हिन्दी में यह पहला ही प्रबल प्रयत्न है, और हम यह कहने का साहस करते हैं कि तुकान्त काव्य के इतिहास में कवि चन्द बरदायी का जो स्थान है, और हिन्दी गद्य में जो गौरव लल्लूलाल जी को प्राप्त है, वही स्थान और वही गौरव श्रीयुत पं० अयोध्यासिंह उपाध्याय को प्रिय-प्रवास की बदौलत अतुकान्त काव्य की गाथा में उस समय तक दिया जायगा जब तक हिन्दी साहित्य में नवीनता और सजीवता का आदर है। इसमें कोई सन्देह नहीं कि हिन्दी साहित्य में 'प्रिय-प्रवास' ने एक महत्वपूर्ण नवीन युग का प्रारम्भ किया है। इसने हिन्दी की सजीवता ओर सबलता प्रमाणित कर दी, और उसको संसार के जीते-जागते साहित्य की श्रेणी में उच्च स्थान अब मिलेगा।
युग-परिवर्तन करने का अपूर्व विशेषण हम 'प्रिय-प्रवास' के साथ क्यों लगाते हैं? इसलिये कि कविता खड़ी बोली में है? अथवा इसलिये कि उसमें काव्योचित विशेषताएँ मौजूद हैं? भाव की गम्भीरता या भाषा की मधुरिमा के लिए क्या हम उसकी इतनी