गोस्वामी तुलसीदास ] १६६ [ 'हरिऔध' पहि विधि उपजै लच्छि जब, सुंदरता सुख मूल । तदपि सकोच समेत कवि, कहहिं सीय सम तून । सूरदासजी में यह उच्च कोटि की मऱ्यांदा दृष्टिगत नहीं होती। वे जब राधिका के रूप का वर्णन करने लगते हैं तो ऐसे अंगों का भी वर्णन कर जाते हैं जो अवर्णनीय है। उनका वर्णन भी इस प्रकार करते हैं जो संयत नहीं कहा जा सकता। कभी-कभी इस प्रकार का वर्णन अश्लील भी हो जाता है। मैं यह मानूँगा कि प्राचीन काल से कवि-परम्परा कुछ ऐसी ही रही है। संस्कृत के कवियों में भी यह दोष पाया जाता है। कवि-कुल-गुरु कालिदास भी इस दोष से मुक्त न रह सके। रघुवंश में वे इन शब्दों में पार्वती और परमेश्वर की वंदना करते हैं:-"वागर्थमिव सम्पृक्तौ वागर्थ प्रतिपचये ! जगतः पितरौ वंदे, पावती परमेश्वरौ" । परन्तु उन्होंने ही कुमार- सम्भा के अष्टम सर्ग में भगवान शिव और जगज्जननी पार्वती के विलास का ऐसा वर्णन किया है जो अत्यन्त अमर्यादित है। संस्कृत के कई विद्वानों ने उनकी इस विषय में कुत्सा की है। यह कवि-परम्परा ही का अन्धानुकरण है कि जिससे कवि-कुल-गुरु भी नहीं बच सके, फिर ऐसी अवस्था में सूरदासजी का इस दोष से मुक्त न होना आश्चर्यजनक नहीं। यह गोस्वामीजी की ही प्रतिभा की विशेषता है कि उन्होंने चिरकाल-प्रचलित इस कुप्रथा का त्याग किया और यह उनकी भक्तिमय प्रवृत्ति का फल है। इस भक्ति के बल से ही उनकी कविता के अनेक अंश अभूतपूर्व और अलौकिक हैं। इस प्रवृत्ति ने ही उनको बहुत उँचा उठाया और इस प्रवृत्ति के बल से ही इस विषय में वे सूरदासजी पर विजयी हुए। आत्मोन्नति, सदाचार-शिक्षा, समाज- संगठन, आर्य जातीय उच्च भावों के प्रदर्शन, सद्भाव, सत् शिक्षा के प्रचार एवं मानव प्रकृति के अध्ययन में जो पद तुलसदासनी को
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