गोस्वामी तुलसीदास ] १६५ [ 'हरिऔध' हिन्दी-साहित्य में कोई अब तक उत्पन्न नहीं हुआ। किन्तु जैसी सर्वतोमुखी प्रतिभा गोस्वामीजी में देखी जाती है, सूरदासजी में नहीं। . गोस्वामीजी नवरस-सिद्ध महाकवि हैं। सूरदासजी को यह गौरव प्राप्त नहीं। कला की दृष्टि से सूरदासजी तुलसीदासजी से कम नहीं हैं। दोनों एक दूसरे के समकक्ष हैं, किन्तु उपयोगिता की दृष्टि से तुलसी- दासजी का स्थान अधिक उच्च है। दूसरी विशेषता गोस्वामीजी में यह है कि उनकी रचनाएँ बड़ी ही मर्यादित हैं। वे जानकीजी का वर्णन जहाँ करते हैं वहाँ उनको जगज्जननी के रूप में ही चित्रण करते हैं। उनकी लेखनी जानकीजी की महत्ता जिस रूप में चित्रित करती है वह बड़ी ही पवित्र है । जानकीजी के सौंदर्य-वर्णन की भी उन्होंने पराकाष्ठा की है, किन्तु उस वर्णन में भी उनका मातृ-पद सुरक्षित है । निम्नलिखित पंक्तियों को देखिो- १-जो पटतरिय तीय सम सीया। - - जग अस जुवति कहाँ कमनीया। गिरा मुखर तनु अरध भवानी। रति अति दुखित अतनु पति जानी। विष बारुनी बन्धु प्रिय जेही। कहिय रमा सम किमि वैदेही। जो छवि सुधा पयोनिधि होई। परम रूपमय कच्छप सोई। सोभा रजु मंदर सिंगारू । मथै पानि - पंकज निज मारू ।
पृष्ठ:रस साहित्य और समीक्षायें.djvu/१९४
यह पृष्ठ अभी शोधित नहीं है।