गोस्वामी तुलसीदास ] १६२ [ 'हरिऔध' महाप्रभु वल्लभाचार्य ने हिन्दू-समाज के इस रोग को उस समय पहचानना था और उन्होंने अपने सम्प्रदाय का यह प्रधान सिद्धान्त रखा कि गार्हस्थ्य धर्म में रह कर ही और सांसारिक समस्त कर्तव्यों का पालन करते हुए ही परमार्थ चिन्ता करनी चाहिये जिससे समाज लोकसंग्रह के मर्म को न समझ कर अस्त-व्यस्त न हो । त्याग का विरोध उन्होंने नहीं किया, किन्तु त्याग के उस उच्च आदर्श की ओर हिन्दू समाज की दृष्टि अाकर्षित की जो मानस-सम्बन्धी सच्चा त्याग है । उनका अादर्श इस श्लोक के अनुसार था- वनेषु दोषाः प्रभवन्ति रागिणम् , गृहेषु पञ्चेन्द्रिय निग्रहस्तपः अकुत्सिते कर्मणि यः प्रवर्तते, _ निवृत्त रागस्य गृहं तपोवनम् । रागात्मक जनों के लिए वन भी सदोष बन जाता है । घर में रह कर पाँचो इन्द्रियों का निग्रह करना ही तप है। जो अकुत्सित कर्मों में प्रवृत्त होता है उसके लिए घर ही तपोवन है। महाप्रभु वल्लभाचार्य की तरह गोस्वामीजी में भी लोक-संग्रह का भाव बड़ा प्रबल था। सामयिक मिथ्याचारों और अन्यथा विचारों से वे संतप्त थे। आर्य- मर्यादा का रक्षण ही उनका ध्येय था । वे हिन्दू जाति की रगों में वह लोहू भरना चाहते थे जिससे वह सत्य-संकल्प और सदाचारी बन कर वैदिक धर्म की रक्षा के उपयुक्त बन सके। वे यह भली भाँति जानते थे कि लोक-संग्रह सभ्यता की उच्च सीढ़ियों पर आरोहण किये बिना ठीक-ठीक नहीं ही सकता । वे हिन्दू जनता के हृदय में यह भाव भी भरना चाहते थे कि चरित्र-बल ही संसार में सिद्धि-लाभ का सर्वो- त्तम साधन है। इसलिए उन्होंने उस ग्रन्थ की रचना की जिसका
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