गोस्वामी तुलसीदास ] १६१ [ 'हरिऔध' प्रकार की असफलता ही सामने अावेगी। रहा यह कि परलोक में क्या होगा उसको यथातथ्य कौन बता सका १ । निगुणवाद की शिक्षा लगभग ऐसी ही है जो संसा से विराग उत्पन्न करती रहती है । घर छोड़ो, धन छोड़ो, विभव छोड़ो, कुटुम्ब- परिवार छोड़ो। तब करो क्या ? जप, तप और हरि-भजन । जीवन चार दिन का है, संसार में कोई अपना नहीं। इसलिए सबको छोड़ो और भगवान का नाम जप कर अपना जन्म बनायो । इस शिक्षा में लोक- संग्रह का भाव कहाँ ? इन्हीं शिक्षायों का यह फल है कि आजकल हिन्दू-समाज में कई लाख ऐसे प्राणी हैं जो अपने को संसार-त्यागी समझते हैं और आप कुछ न कर दूसरों के सिर का बोझ बन रहे हैं । उनके बाल-बच्चे अनाथ हों, उनकी स्त्री भूखों मरे, उनकी बला से । वे देश के काम आयें या न आयें, जाति का उनसे कुछ भला हो या न हो, समाज उनसे छिन्न-भिन्न होता है तो हो, उनको इन बातों से कोई मतलव नहीं, क्योंकि वे भगवान् के भक्त बन गये हैं और उनको इन पचड़ों से कोई काम नहीं । संसार में रह कर कैसे जीवन व्यतीत करना चाहिये ? कैसे दूसरों के काम आना चाहिये ? कैसे कष्टितों का कष्ट- निवारण करना चाहिये ? कैसे प्राणिमात्र का हित करना चाहिये ? मानवता किसे कहते हैं ? साधु-चरित्र का क्या महत्व है ? महात्मा किसका नाम है ? वे न इन सब बातों को जानते और न इन्हें जानने का उद्योग करते हैं। फिर भी वे हरिभक्त हैं और इस बात का विश्वास रखते हैं कि उनके लेने के लिए सीधे सत्य लोक से विमान आयेगा । जिसके ऐसे संस्कार हैं उससे लोक-संग्रह की क्या आशा है ? किन्तु कष्ट की बात है कि अधिकांश हमारा संसार-त्यागी समाज ऐसा ही है क्योंकि उसने त्याग और हरि-भजन का मर्म समझा ही नहीं, और क्यों समझता जब परोक्ष सत्ता ही से उसको प्रयोजन है और संसार से उसका कोई सम्बन्ध नहीं।
पृष्ठ:रस साहित्य और समीक्षायें.djvu/१९०
यह पृष्ठ अभी शोधित नहीं है।