गोस्वामी तुलसीदास] १८८ [ 'हरिऔध' मानस की रचना अवधी भाषा में ही हुई। किन्तु गोस्वामीजी की अवधी परिमार्जित अवधी है और यही कारण है कि जब मलिक मुहम्मद जायसी के 'पदमावत' की भाषा अाजकल कठिनता से समझी जाती है तब गोस्वामीजी की रामायण को सर्वसाधारण भी समझ लेते हैं । जायसी भी संस्कृत के तत्सम शब्दों का प्रयोग करते हैं। किन्तु उनका संस्कृत शब्दों का भण्डार व्यापक नहीं था। इसलिए वे सरस. भावमय एवं कोमल संस्कृत शब्दों के चयन में उतने समर्थ नहीं बन सके जितने गोस्वामीजी। कहीं-कहीं उन्होंने संस्कृत शब्दों को इतना विकृत कर दिया है कि उसकी पहचान फठिनता से होती है, जैसे 'शार्दूल' का 'सदुर। परन्तु गोस्वामीजी इस महान् दोष से सर्वथा मुक्त हैं। अवधी शब्दों और वाक्यों के विषय में भी उनकी सहृदयता नीर-क्षीर का विवेक करने में हंस की सी शक्ति रखती है। रामचरित- मानस विशाल ग्रंथ है, परन्तु उसमें ग्रामीण भद्दे शब्द बहुत खोजने पर भी नहीं मिलते। कहीं-कहीं तो अवधी शब्द का व्यवहार उनके द्वार-इस मधुरता से हुआ है कि वे बड़े ही हृदयग्राही बन गये हैं। उनकी दृष्टि विशाल थी और वे इस बात के इच्छुक थे कि उनकी रचना हिन्द-संसार में नवजीवन का संचार करे। अतएव उन्होंने हिन्दी-भाषा के ऐसे अनेक शब्दों को भी अपनी रचना में स्थान दिया है जो अवधी भाषा के नहीं कहे जा सकते। उनकी इस दूरदर्शिनी दृष्टि का ही यह फल है कि आज उनके महान् ग्रंथ की उतनी व्यापकता है कि उसके लिए 'गेहे-गेहे' जने-जने वाली कहावत चरितार्थ हो रही है। ___ गोस्वामीजी जिस समय साहित्य-क्षेत्र में उतरे उस समय निगुण- धारा बड़े वेग से बह रही थी जो जनता को परोक्ष सत्ता की ओर ले जाकर उसके मनो में सांसारिकता से विराग उत्पन्न कर रही थी। विराग वैदिक धर्म का एक अङ्ग है। उसको शास्त्रीय भाषा में निवृत्ति
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