कविवर सूरदास ] १८१ [ 'हरिऔध' जाती है। 'सुअना', 'नैन', 'नदिया', 'निदरिया', 'जियरा', 'हियरा' आदि ऐसे ही शब्द हैं। सूरदासजी इस प्रकार के शब्दों का प्रयोग अपनी रचना में इस सरसता के साथ करते हैं कि उसका छिपा हुआ रस छलकने लगता है। देखिये- १-'सूरदास नलिनी के सुअना कह कौने पकरो'। २-नैना भये अनाथ हमारे। ३-एक नदिया एक नार कहावत मैलो नीर भरो। ४-भरे लाल को आउ निँदरिया काहे न आनि सुहावै । अवधी भाषा के इसी प्रकार के शब्द 'करेजवा' 'बदरवा' इत्यादि हैं । जैसे संस्कृत में स्वार्थे क' आता है जैसे- 'पुत्रक', 'बालक' इत्यादि। इन दोनों शब्दों में जो अर्थ 'पुत्र' और 'बाल' का है वही अर्थ सम्मि लित 'क' का है, उसका कोई अन्य अर्थ नहीं। इसी प्रकार 'मुखड़ा', (बछड़ा', 'हियरा', 'जियरा', 'करेजवा', 'बदरवा', 'सुवा', 'नदिया', निदरिया' के 'डा', 'रा', 'बा', और 'श्रादि' हैं जो अन्त में आये हैं और अपना पृथक अर्थ नहीं रखते, केवल 'या' भी आता है, जैसे 'नैना', 'बैना', 'बदरा', 'अँचरा,' का 'बा' । १२-ब्रजभाषा में बहुवचन के लिए शब्द के अन्त में 'न' और 'नि' आता है। ईकारान्त शब्दों में पूर्ववर्ती वर्ण को ह्रस्व करके याँ और अकारान्त शब्दों के अन्त में 'ऐ' आता है। सूरदासजी की रचनात्रों में इन सब परिवर्तनों के उदाहरण मिलते हैं, जिनसे उनकी व्यापक दृष्टि का पता चलता है। निम्नलिखित पंक्तियों को देखिये:- 'कछुक खात कछु घरनि गिरावत छवि निरखत नँदरनियाँ' 'भरि भरि जमुना उमडि चलत है इन नैनन के तीर'
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