कविवर सूरदास ] १८० [ 'हरिऔध' है। जिस भाषा ने इस प्रकार की उदारता ग्रहण की, वही अपनी परिधि से निकल कर ब्यापकता प्राप्त कर सकी। अाज गोस्वामी तुलसीदास और कविवर सूरदास की रचनाएँ यदि उत्तरीय भारत को छोड़ कर दक्षिणीय भारत के कुछ अंशों में भी आद्रित हो रही हैं तो उसका कारण यही है कि उन्होंने अपनी भाषा को उदार बनाया और उसके निजत्व को सुरक्षित रख कर अन्य भाषाओं के शब्दों को भी उसमें स्थान दिया। इस दृष्टि से देखने पर सूरदासजी ने इस विषय में जो कुछ स्वतंत्रता ग्रहण की है वह इस योग्य नहीं कि उस पर उंगली उठायी जा सके। ___१०-प्राकृत भाषा के जो शब्द सुन्दर और सरस होने के कारण ब्रजभाषा की बोलचाल में गृहीत रहे, सूरदासजी की रचनाओं में भी उनका प्रयोग उसी रूप में पाया जाता है। ऐसे शब्द 'सायर', 'लोयन', 'नाह', 'केहरि' इत्यादि हैं। वे अपभ्रंश भाषा के अनुसार कुछ प्राति- पदिक और प्रत्ययों को भी उकार युक्त लिखते हैं जैसे तपु, मुहुँ, बाजु, बिनु इत्यादि । ब्रजभाषा और अवधी में अपभ्रंश अथवा प्राकृत भाषा की अनेक बिशेषताएँ पायी जाती हैं। ऐसी अवस्था में यदि उसके कुछ शब्द अपने मुख्य रूप में इन भाषाओं में आते हैं तो उनका अाना युक्ति- संगत है, क्योंकि इस प्रकार की विशेषताएँ और शब्दावली ही उस घनिष्टता का परिचय देती रहती है जो कि ब्रजभाषा अथवा अबधी का प्राकृत अथवा अपभ्रंश के साथ है। भाषा-शास्त्र की दृष्टि से इस प्रकार की घनिष्टता अधिक वांछनीय है। ११-ब्रजभाषा की बोलचाल में कुछ शब्द ऐसे हैं जिनका उच्चारण कुछ ऐसी विशेषता से किया जाता है कि वे बहुत मधुर बन जाते हैं । इन शब्दों के अन्त में एक वर्ण अथवा 'श्रा' इस प्रकार बढ़ा दिया जाता है कि जिससे उसका अर्थ तो वही रह जाता है जिसमें वह मिलाया जाता है, परन्तु ऐसा करने से उसमें एक विचित्र मिठास श्रा
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