कविवर सूरदास ] १७७ [ 'हरिऔध' दस्ख को दीर्घ और दीर्घ को ह्रस्व लिखने का नियम है उसी प्रकार संकीर्ण स्थलों पर ह्रस्व को दीर्घ और दीर्घ को ह्रस्व पढ़ने की प्रणाली भी है। ४--प्राकृत और अपभ्रंश में प्रायः कारक चिह्नों का लोप देखा जाता है। सूरदासजी की रचनाओं में भी इस प्रकार की पंक्तियाँ मिलती हैं । कुछ तो कारकों का लोप साधारण बोलचाल की भाषा पर अवलम्बित है और कुछ कवितागत अथवा साहित्यिक प्रयोगों पर । नीचे लिखे हुए वाक्य इसी प्रकार हैं- ___'जो विधि लिखा लिलार', 'मधुकर अंबुज रस चख्यो', 'मैं कैसे करि पायो' इन वाक्यों में कर्त्ता का ने चिह्न लुप्त है। 'कामधेनु तजि छेरी दुहावै', 'प्रभु मोरे औगुन चित न धरो', 'मरकट मूठि छोड़ि नहिं दीन्हीं', 'सरिता सर पोषत' इन वाक्यों में कर्म का चिह्न 'को' अन्तर्हित है। नान्हें कर अपने मैं कैसे करि पायो' इस वाक्य में करण का 'से' चिह्न लुप्त है। ____ 'जो सुख सूर अमर मुनि दुरलभ' में सम्प्रदान का चिह्न 'को' या 'के लिए' का लोप किया गया है । 'बरबस कूप परो', 'मेरे मुख लपटायो' 'ऊँचे घर लटकायो', 'पालने झुलावै', 'कर नवनीत लिये', इन वाक्यों में अधिकरण के ‘में' चिह्न का अभाव है। ५-ब्रजभाषा में कुछ ऐसे शब्द प्रयोग आते हैं जिनमें विभक्ति या प्रत्यय शब्द के साथ सम्मिलित होते हैं, अलग नहीं लिखे जाते। कविता में इससे बड़ी सुविधा होती है। इस प्रकार के प्रयोग अधिकतर बोलचाल पर अवलम्बित हैं। पूर्वकालिक क्रिया का चिह्न 'कर' अथवा 'के' है। ब्रजभाभा में प्राय: विधि के साथ इकार का प्रयोग कर देने से भी यह क्रिया बन जाती है। जैसे, 'टरि', 'मिली', 'करि', इत्यादि । संज्ञा के साथ जब अोकार सम्मिलित कर दिया जाता है तो वह प्रायः 'भी' का काम देता है जैसे 'एको', 'दूधो' इत्यादि 'जसुमति मधुरे गावै १२
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