कविवर सूरदास ] १७५ ['हरिऔध' ग्रामीणता दोष से वह अधिकतर सुरक्षित है। उसमें अन्य प्रान्तिक भाषात्रों के शब्द' भी मिल जाते हैं । किन्तु इनकी यह प्रणाली बहुत मर्यादित है । गुरु को लघु और लघु को गुरु करने में उनको संयत देखा जाता है। वे शब्दों को कभी-कभी तोड़ते-मरोड़ते भी हैं। किन्तु उनका यह ढंग उद्वेजक नहीं होता। उसमें भी उनकी लेखनी की निपुणता दृष्टिगत होती है। ब्रजभाषा के जो नियम और विशेषताएँ मैं पहले लिख आया हूँ उनकी रचनाओं में उनका पालन किस प्रकार हुअा है, मैं नीचे उसको उद्धृत पद्यों के आधार से लिखता हूँ- १-उनकी रचनायों में कोमल शब्द-विन्यास होता है। इसलिए उनमें संयुक्त वर्ण बहुत कम पाये जाते है जो वैदर्भी वृत्ति का प्रधान लक्षण है। यदि कोई संयुक्त वर्ण प्रा भी जाता है तो वे उसके विषय में युक्त-विकर्ष सिद्धान्त का अधिकतर पालन करते जाते हैं। जैसे, 'समदरसी', 'महातम', 'दुरलभ', 'दुरमति' इत्यादि । वर्गों के पञ्चम वर्ण के स्थान पर उनको प्रायः अनुस्वार का प्रयोग करते देखा जाता है। जैसे, 'रंक', 'कंचन', 'गंग', 'अंबुज', 'नंदनंदन', 'कंठ' इत्यादि । २–णकार, शकार, क्षकार के स्थान पर क्रमशः 'न', 'स', और 'छ' वे लिखते हैं । 'ड' के स्थान पर 'ड' और 'ल' के स्थान पर र? एवं संज्ञात्रों के आदि के 'य' के स्थान पर 'ज' लिखते उनको प्रायः देखा जता है । ऐसा वे ब्रज प्रान्त की बोलचाल की भाषा पर दृष्टि रख कर ही करते हैं । 'बरन्', 'रेनु', 'गुन', 'श्रौगुन', 'निरगुन', 'सोभित', 'सत', 'स्याम', 'दसा', 'दरसन', 'अतिसै', 'जसुमति', 'जसुदा', 'जदु- पति', 'बिलछि', और 'पच्छी' आदि शब्द इसके प्रमाण हैं। ३-गुरु के स्थान पर लघु और लघु के स्थान पर गुरु भी वे करते हैं, किन्तु बहुत कम । 'माधुरि', 'रंग', 'नहिं', दामिनि', 'केहरि', 'मनो', 'भामिनि', 'बिन' इत्यादि शब्दों में गुरु को लघु कर दिया गया
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