कविवर सूरदास ] १७४ [ 'हरिऔध' . भवर कुरग काम अरु कोकिल कपटनि की चटसार । सुनहु सखीरी दोष न काहू जो विधि लिखो लिलार । उमड़ी घटा नाति के पावस प्रम की प्रोति अपार । सूरदास सरिता सर पोषत चातक करत पुकार । ___ भाषा कविवर सूरदास के हाथों में पड़कर धन्य हो गयी। प्रारम्भिक काल से लेकर उनके समय तक आपने हिन्दी भाषा का अनेक रूप अवलोकन किया। परन्तु जो अलौकिकता उनकी भाषा में दृष्टिगत हुई वह असाधारण है । जैसी उसमें प्राञ्जलता है वैसी ही मिठास है । जितनी ही वह सरस है उतनी ही कोमल । जैसा उसमें प्रवाह है वैसा ही अोज । भाव मूर्तिमन्त होकर जैसा उसमें दृष्टिगत होता है, वैसी ही व्यंजना भी उसमें अठखेलियाँ करती अवगत होती है। जैसा शृंगार-रस उसमें सुविकसित दिखलायी पड़ता है, वैसा ही वात्सल्य-रस छलकता मिलता है । जैसी प्रेम की विमुग्धकरी मूर्ति उसमें प्राविभूति होती है, वैसा ही आन्तरिक वेदनात्रों का मर्मस्पशी रूप सामने आता है। ब्रजभाषा के जो उल्लेखनीय गुण अब तक माने जाते हैं और उसके जिस माधुर्य का गुणगान अब तक किया जाता है, उसका प्रधान अवलम्बन सूरदासनी का ही कवि कर्म है। एक प्रान्त-विशेष की भाषा समुन्नत होकर यदि देश-व्यापिनी हुई तो ब्रजभाषा ही है और ब्रजभाषा को यह गौरव प्रदान करनेवाले कविवर सूरदास हैं। उनके हाथों से यह भाषा जैसी मँजी, जितनी मनोहर बनी, और जिस सरसता को उसने प्राप्त किया, वह हिन्दी संसार के लिए गौरव की वस्तु है। मैंने ब्रजभाषा की जो विशेषताएँ पहले बतलायी हैं वे सब उनकी भाषा में पायी जाती हैं, बरन् यह कहा जा सकता है कि उनकी भाषा के आधार से ही ब्रजभाषा की विशेषताओं की कल्पना हुई। मेरा विचार है कि उन्होंने इस बात पर भी दृष्टि रखी है कि कोई भाषा किस प्रकार ब्यापक बन सकती है। उनकी भाषा में ब्रजभाषा का सुन्दर से सुन्दर रूप देखा जाता है। परन्तु
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