१७१ कविवर सूरदास ] [ 'हरिऔध' . मरकट मूठि छोड़ नहिं दोन्हीं घर घर द्वार फिरो। सूरदास नलिनी के सुश्रना कह कौने पकरो। ४-मेरो मन अनत कहाँ सुख पावै। जैसे उडि जहाज को पंछी फिरी जहाज पै अावै । कमल नयन को छाडि महातम और देव को ध्यावै । पुलिन गंग को छाँडि पियामो दुरमति कूप खनावै । जिन मधुकर अम्बुज रस चाख्यो क्यों करील फल खावै। सूरदास प्रभु काम धेनु तजि छेरी कौन दुहावै । कुछ पद्य बाल भाव-वर्णन के भी देखिये:- -मैया मैं नाहीं दधि खायो। ख्याल परे ये सखा सबै मिलि मेरे मुख लपटायो । देख तुही छोके पर भाजन ऊँचे घर लटकायो। तुही निरखु नान्हें कर अपने मैं कैसे कर पायो। मुख दधि पोंछ कहत नँदनंदन दोना पीठि दुरायो। डारि साँट मुसकाइ तबहिं गहि सुत को कंठ लगायो । ६-जसुदा हरि पालने मुलाव । हलरावै दुलराइ मल्हावै जोई सोई कछु गावै । मेरे लाल को आउ निंदरिया काहे न आनि सुआवै । तू काहे न बेग ही आवै तोको कान्ह बुलावै। कबहुँ पलक हरि म दि लेत हैं कबहुँ अधर फरकावै । सोवत जानि मौन है है रहि करि करि सैन बतावै। येहि अन्तर अकुलाइ उठे हरि जसुमति मधुरे गावै। जो सुखसूर अमर मुनि दुरलभ सोनँद भामिनि पावै। ७-सोभित कर नवनीत लिये। घुटुरुन चलत रेनु-मंडित तनु मुख दधि लेप किये।
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