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नयी शैली में जो सरस रचना भाव लख के।

विरोधी हैं भारी प्रकट उसके वे कर कृपा॥
पढ़ें आ हाथों में अनुपम महाकाव्य यह ले।
भ्रमों को स्वीकारें निज निज तजैं व्यर्थ हठ को॥
न भाषाधीना है कवि-कृति-कला की सरसता।
करों में ही भाषा-रस-मधुरिमा योग्य कवि के॥
इसे जो हे भाई तुम असतसा बोध करते।
पढ़ो ले हाथों में तब प्रियप्रवासामृत कथा॥


उपाध्याय जी में लोक-संग्रह का भाव बड़ा प्रबल है। उक्त काव्य में श्रीकृष्ण ब्रज के रक्षक-नेता के रूप में अंकित किये गये हैं। खड़ी बोली में इतना बड़ा काव्य अभी तक नहीं निकला। बड़ी भारी विशेषता इस काव्य की यह है कि यह संस्कृत के वर्णवृत्तों में है। उपाध्याय जी का संस्कृत पदविन्यास बहुत ही चुना हुआ और काव्योपयुक्त होता है।

यह काव्य अधिकतर वर्णनात्मक है। वर्णन कहीं-कहीं बहुत मार्मिक हैं, जैसे, कृष्ण के चले जाने पर ब्रज की दशा का वर्णन। विरह-वेदना से क्षुब्ध वचनावली के भीतर जो भाव की धारा अनेक बल खाती, बहुत दूर तक लगातार चली चलती है, उसमें पाठक अपनी सुध-बुध के साथ कुछ काल के लिए मग्न हो जाता है।

--पं० रामचन्द्र शुक्ल

खड़ी बोली में ऐसा सुन्दर, प्रशस्त, काव्य-गुण-सम्पन्न और उकृत्ष्ट काव्य आज तक दूसरा निकला ही नहीं। हम इसे खड़ी बोली के कृष्णकाव्य का सर्वोत्तम प्रतिनिधि कह सकते हैं। वर्णनात्मक काव्य होकर यह चित्रोपम, सजीव, रोचक तथा रसपूर्ण है। वर्णन-शैली बड़ी ही चोखी और चुटीली है। भावानुभावादि का भी