कविवर सूरदास १७० ['हरिऔध' करने में असमर्थ हूँ, परन्तु यह अधिकार के साथ कहा जा सकता है कि हिन्दी भाषा में ऐसा वर्णन तो है ही नहीं, परन्तु भारतीय अन्य प्रान्तीय भाषाओं में भी वैसा अपूर्व वर्णन उपलब्ध नहीं होता। उनकी विनय और प्रार्थना सम्बन्धी रचनाएँ भी अादर्श हैं और आगे चलकर परवर्ती कवियों के लिए उन्होंने मार्ग-प्रदर्शन का उल्लेखनीय कार्य किया है। मैं इस प्रकार के कुछ पद नीचे लिखता हूँ। उनको देखिये कि उनमें किस प्रकार हृदय खोलकर दिखलाया गया है, उनकी भाषा की प्राञ्चलता और सरलता भी भी दर्शनीय है । १-जनम सिरानो ऐसे ऐसे। कै घर घर भरमत जदुपति बिन कै सोवत के बैसे। कै कहुँ खानपान रसनादिक कै कहुँ बाद अनैसे । कै कहुँ रंक कहू' ईसरता नट बाजीगर जैसे । चेत्यो नहीं गयो टरि अवसर मीन बिना जल जैसे। कै गति भई सूर की ऐसी स्याम मिलें धौं कैसे। २-प्रभु मोरे औगुन चित न धरो। समदरसी है नाम तिहारो चाहे तो पार करो। एक नदिया एक नार कहावत मैलो नीर भरो। जब दोनों मिलि एक बरन भये सुरसरि नाम परो । एक लोहा पूजा में राखत एक घर बधिक परो। पारस गुन औगुन नहिं चितवै कंचन करत खरो। यह माया भ्रम जाल कहावै सूरदास सगरो। अबकी बार मोहि पार उतारो नहिं प्रन जात टरो। ३-अपनपो आपन ही बिसरो। जैसे स्वान काँच के मंदिर भ्रमि भ्रमि भूकि मरो। ज्यों केहरि प्रतिमा के देखत बरबस कूप परो।
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