कविवर सूरदास ] १६७ [ 'हरिऔध' सन् १५०३ ई० बतलाया है। परन्तु वे ही इसको संदिग्ध बतलाते हैं । जो हो, गदि यह कविता कविवर सूरदासजी के पहले की मान भी ली जावे तो इससे उनके आदिम प्राचार्यत्व को बट्टा नहीं लगता। मेरा विचार है कि सूरदासजी के प्रथम ब्रजभाषा का कोई ऐसा प्रसिद्ध कवि नहीं हुआ कि जिसकी कृति ब्रजभाषा कविता का साधारण अादर्श बन सके। दो चार कवित्त लिखकर और छोटा-मोटा ग्रंथ बनाकर कोई किसी महाकवि का मार्ग-दर्शक नहीं बन सकता। सूरदासजी से पहले कबीर- दास, नामदेव, रविदास आदि सन्तों की बानियों का प्रचार हिन्दू संसार में कुछ न कुछ अवश्य था। संभव है कि ब्रजभाषा के ग्राम्यगीत भी उस समय कुछ अपनी सत्ता रखते रहे हों। परन्तु वे उल्लेख योग्य नहीं। मैं सोचता हूँ कि सूरदासजी की रचनाएँ अपनी स्वतंत्र सत्ता रखती हैं और वे किसी अन्य की कृति से उतनी प्रभावित नही हैं जो वे उनका आधार बन सकें । खुसरो की कविताओं में भी ब्रजभाषा की रचनाएँ मिली हैं और ये रचानाएँ भी थोड़ी नहीं हैं । यदि उनकी रचनाओं का आधार हम ब्रजभाषा की किसी प्राचीन रचना को मान सकते हैं तो सूरदास की रचनाओं का अाधार किसी प्राचीन रचना को क्यों न माने ? मानना चाहिये और मैं मानता हूँ। मेरा कथन इतना ही है कि सूरदासजी के पहले ब्रजभाषा की कोई ऐसी उल्लेख-योग्य रचना नहीं थी जो उनका आदर्श बन सके। प्रज्ञाचक्षु सूरदासजी अपने आदर्श प्राप थे। वे स्वयं प्रकाश थे। ज्ञात होता है इसीलिए वे हिन्दी-संसार के सूर्य कहे जाते हैं। महाप्रभु वल्लभाचार्य उनको सागर कहा करते थे। इसी आधार पर उनके विशाल ग्रन्थ का नाम सूरसागर है। वास्तव में वे सागर थे और सागर के समान ही उत्ताल तरंग-माला-संकुलित । उनमें गम्भीरता भी वैसी ही पायी जाती है। जैसा प्रवाह, माधुर्य, सौन्दर्य उनकी कृति में पाया जाता है अन्यत्र दुर्लभ है। वे भक्तिमार्गी थे, अतएव प्रेममार्ग का जैसा त्यागमय
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