कबीर साहब ] १६४ [ 'हरिऔध' कह कबीर जो पद को जान । सोई सन्त सदा परमान । —कबीर वीजक पृ० ३६४ . ___ कबीर साहब ने निगुण का राग अलापते हुए भी अपनी रचनाओं में सगुणता की धारा बहायी है। कभी वे परमात्मा के सामने स्वामी- सेवक के भाव में आते हैं, कभी स्त्री-पुरुष अथवा पुरुष प्रेमी और प्रेमिका के रूप में, कभी ईश्वर को माता-पिता मानकर श्राप बालक बनते हैं और कभी उसको जगन्नियंता मानकर अपने को एक क्षुद्र जीव स्वीकार करते हैं। इन भावों की उनकी जितनी रचनाएँ हैं सरस और सुन्दर हैं और उनमें यथेष्ट हृदयग्राहिता है। जनता के सामने कभी वे उपदेशक और शिक्षक के रूप में दिखलायी देते हैं, कभी सुधारक बन कर । मिथ्याचारों का खंडन वे बड़े कटु शब्दों में करते हैं और जिस पर टूट पड़ते हैं उसकी गत बना देते हैं। उनकी यह नानारूपता इष्ट-साधन की सहचरी हैं। उनकी रचनात्रों में जहाँ सत्यता की ज्योति मिलती है, वहीं कटुता की पराकाष्ठा भी दृष्टिगत होती है। वास्तव बात यह है कि हिन्दी संसार में उनकी रचनाएँ विचित्रतामयी हैं। उनका शब्द-विन्यास बहुधा असंयत और उद्वेजक है, कहीं-कही वह अधिकतर उच्छल है, छन्दों नियम की रक्षा भी उसमें प्राय: नहीं मिलती। फिर भी उनकी कुछ रचनाओं में वह मन-मोहकता, भावुकता, और विचार की प्राञ्जलता मिलती है जिसकी बहुत कुछ प्रशंसा की जा सकती है।
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