पृष्ठ:रस साहित्य और समीक्षायें.djvu/१६१

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कबीर साहब ] १६२ [ 'हरिऔध' परमातम में आतम तैसे आतम मद्धे माया। ज्यों नभ मद्धे सुन्न देखिये सुन्न अंड आकास । निह अच्छर ते मच्छर तैसे अच्छर छर बिस्तारा । ज्यों रवि मद्धे किरन देखिये किरन मध्य परकासा। परमातम में जीव ब्रह्म इमि जीव मध्य जिमि सॉसा। स्वाँसा मद्धे सब्द देखिये अर्थ शब्द के माहीं। ब्रह्म ते जीव जीव ते मन यों न्यारा मिला सदाहीं। आपहि बीज वृच्छ अंकूरा आप फूल फल छाया। आपहि सूर किरन परकासा आप ब्रह्म जिव माया। अंडाकार सुन्न नभ आपै स्वाँस सब्द अरु जाया। निह अच्छर अच्छर छर आपै मन जिउ ब्रह्म समाया। आतम में परमातम दरसै परमातम में झांई। झांई में परछाई दरसै लखै कबीरा सांई। ___ रहस्यवादकी ऐसी सुन्दर रचनाओं के रचयिता होकर भी कहीं- कही कबीर साहब ने ऐसी बातें कही हैं जो बिल्कुल ऊटपटाँग और निरर्थक मालूम होती हैं । इस पद को देखिये:- ठगिनी क्या नैना झमकावै। कबिरा तेरे हाथ न आवै। कद्दू काटि मृदंग बनाया नीबू काटि मँजीरा। सात तरोई मंगल गावै नाचै बालम खीरा । भैंस पदमिनी आसिक चूहा मेढक ताल लगावै । चोला पहिरि गदहिया नाचै ऊँट बिसुनपद गावै । श्राम डार चढ़ि कछुआ तोड़े गिलहरि चुनचुनि लावै । कहैं कबीर सुनो भाई साधो बगुला भोग लगावै।