कबीर साहब ] १६१ [ 'हरिऔध' रहस्यवाद को पढ़कर कुछ श्रद्धालु यह कहते हैं कि वे ईश्वर-विद्या के अद्वितीय मर्मज्ञ थे । वे भी अपने को ऐसा ही समझते हैं । लिखते हैं- सुर नर मुनि जन औलिया ए सब उरली तीर । अलह राम की गम नहीं, वह घर किया कबोर । किसी के श्रद्धा-विश्वास के विषय में मुझको कुछ वक्तव्य नहीं देना है। कबीर साहब स्वयं अपने विषय में जो कुछ कहते हैं, उसका उद्देश्य क्या था, इस पर मैं बहुत कुछ प्रकाश डाल चुका हूँ। इष्टसिद्धि के लिए वे जो पथ-ग्रहण करना उचित समझते थे, ग्रहण कर लेते थे । प्रत्येक धर्म-प्रवर्तक में यह बात देखी जाती है। इसलिए इस विषय में अधिक लिखना पिष्टपेषण है, किन्तु यह मैं स्वीकार करूँगा कि कबीर साहब हिन्दी संसार में रहस्यवाद के प्रधान स्तम्भ हैं। उनका रहस्यवाद भी कुछ पूर्व महजनों की रचनाओं पर आधारित हो, परन्तु उनके द्वारा वह बहुत कुछ पूर्णता को प्राप्त हो गया। उनकी ऐसी रचनाओं में बड़ी ही विलक्षणता और गम्भीरता दृष्टिगत होती है। कुछ पद्य देखिये:- १-ऐसा लो तत ऐसा लो मैं केहि विधि कहौं गंभीरा लो। बाहर कहूँ तो सतगुरु लाजै भीतर कहूँ तो झूठा लो। बाहर भीतर सकल निरन्तर गुरु परतापै दीठा लो। दृष्टि न मुष्टि न अगम अगोचर पुस्तक लखा न जाई लो। जिन पहचाना तिन भल जाना कहे न कोउ पतिआई लो। मीन चले जल मारग जोवै परम तत्व धौं कैसा लो। पुहुप बास हूँ ते अति झीना परम तत्व धौ ऐसा लो। आकासे उड़ि गयो बिहँगम पाछे खोज न दरसी लो। कहै कबीर सतगुरु दाया तें बिरला सतपद परसी लो। २-साधो सतगुरु अलख जगाया जब आप-आप दरसाया । बीज मध्य ज्यों बृच्छा दरसै बृच्छा मद्धे छाया ।
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