कबीर साहब ] १५४ [ 'हरिऔध' थे नामदेव ।। उनका समय है १३७० ई० से १४४० ई. तक । इस लिए उनका कबीर साहब से पहले होना निश्चित है । उन्होंने स्वयं अपने मुख से उनको महात्मा माना है। वे लिखते हैं- "जागे सुक उधव औं' अक्रूर । .. हनुमत जागे लै लंगूर । संकर जागे चरन सेव । कलि जागे नामा जयदेव । सिक्खों के ग्रन्थ साहब में भी उनके कुछ पद्य संगृहीत हैं। ज्ञानेश्वर जैसे महात्मा से दीक्षित होकर उनकी वैष्णवता कैसी उच्च कोटि की थी और वे कैसे महापुरुष थे उसे निम्नलिखित शब्द बतलाते हैं- बदो क्यों न होड़ माधो मोसों। ठाकुर ते जन जनते ठाकुर खेल परयो है तोसों। आपन देव देहरा आपन आप लगावै पूजा। जल ते तरँग-तरँग ते जल है कहन-सुनन को दूजा । आपहि गावै, आपहि नाचै, आप बजावै तूरा । कहत नामदेव तू मेरे ठाकुर जन ऊरा तू पूरा ॥ २-दामिनि दमकि घटा घहरानी, बिरह उठे घनघोर । चित चातक है दादुर बोले ओहि बन बोलत मोर । प्रीतम को पतिया लिख भेजौं प्रेम प्रीति मसि लाय । वेगि मिलो जन नामदेव को जनम अकारथ जाय । हिन्दु पूजे देहरा, मुस्सलमान मसीत । नामा सोई सेविया, ना देहरा न मसीत । + देखिये, मिश्रबन्धु विनोद प्रथम भाग का पृ० २२३ ।
पृष्ठ:रस साहित्य और समीक्षायें.djvu/१५८
यह पृष्ठ अभी शोधित नहीं है।