कबीर साहब ] १५८ [ 'हरिऔध' शिक्षा लेते थे। ऐसा करना अनुचित नहीं। ज्ञान प्राप्त करने के लिए, अनेक महात्मात्रों का सत्संग करना निन्दनीय नहीं-किन्तु यह देखा जाता है कि कबीर साहब कभी वैष्णव हैं, कभी पीर, कभी योगी और कभी सूफ़ी और कभी वेदान्त के अनुरागी। उनका यह बहुरूप श्रद्धालु के लिए भले ही उनकी महत्ता का परिचायक हो, परन्तु एक समीक्षक की दृष्टि इस प्रणाली को संदिग्ध हो कर अवश्य देखेगी। मेरा विचार है कि अपने सिद्धान्त के प्रचार के लिए उन्होंने समय समय पर उप- युक्त पद्धति ग्रहण की है और जनता के मानस पर अपनी सर्वज्ञता की धाक जमा कर उन्हें अपनी ओर आकर्षित करने का विशेष ध्यान रखा है। इसीलिये वे अनेक रूप-रूपाय हैं। मैंने उनकी रचनाओं का आधार ढूँढ़ने की जो चेष्टा की है उसका केवल इतना ही उद्देश्य है कि यह निश्चित हो सके कि वास्तव में उनकी रचनाएँ उनके कथनानुसार अभूतपूर्व और अलौकिक हैं या उनका स्रोत किसी पूर्ववर्ती ज्ञान-सरोवर से ही प्रसूत है। 'सरस्वती' में 'चौरासी सिद्ध' नामक लेख के लेखक ङ्केबौद्ध विद्वान राहुल सांस्कृताथन ने कबीर साहब की रचनाओं पर सिद्धों की छाप बतलाते हुए यह लिखा है कि "कवीर का सम्बन्ध सिद्धों से मिलाना उतना आसान नहीं है। किन्तु मैं समझता हूँ कि यह आसान है, यदि सिद्धों के साथ नाथ-सम्प्रदाय वालों को भी सम्मिलित कर लिया जाय। मैं नहीं कह सकता कि इस बहुत ही स्पष्ट विकास की ओर उनकी दृष्टि क्यों नहीं गयी ? महात्मा ज्ञानेश्वर ने अपने ज्ञानेश्वरी नामक ग्रन्थ में अपनी गुरु- परम्परा यह दी है-(१) आदिनाथ (२) मत्स्येन्द्रनाथ (३) गोरखनाथ, (४) गहनी नाथ, (५) निवृत्तिनाथ, (६) ज्ञानेश्वर * ज्ञानेश्वर के शिष्य ___देखिये, हिन्दुस्तानी, जनवरी, सन् १९३२ के पृ० ३२ में डाक्टर हरि रामचन्द्र दिवेकर एम० ए० डी० लिट० का लेख ।
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