कबीर साहब ] १५४ [ 'हरिऔध' से पहले होना स्पष्ट है । कबीर साहब की रचनात्रों पर, विशेष कर उन रचनाओं पर जो रहस्यवाद से सम्बन्ध रखती हैं, बौद्धधर्म के उन सिद्धों की रचनाओं का बहुत बड़ा प्रभाव देखा जाता है जिनका प्रावि- र्भाव उनसे सैकड़ों वर्ष पहले हुया। कबीर साहब की बहुत सी रचनाएँ ऐसी हैं जिनका दो अर्थ होता है। मेरे इस कहने का यह प्रयोजन है कि ऐसी कविताओं के वाच्यार्थ से भिन्न दूसरे अर्थ प्रायः किये जाते हैं। जैसे, घर-घर मुसरी मंगल गावै, कछुआ संख बजावै। पहिरि चोलना गदहा नाचे, भैंसी भगत करावै ॥ इत्यादि । इन शब्दों का वाच्यार्थ बहुत स्पष्ट है, किन्तु यदि वाच्यार्थ ही उसका वास्तविक अर्थ मान लिया जाय तो वह बिल्कुल निरर्थक हो जाता है। ऐसी अवस्था में हसरा अर्थ करके उसकी निरर्थकता दूर की जाती है । बौद्ध सिद्धों की भी द्वयर्थक अनेक रचनाएँ हैं । मेरा विचार है कि कबीर साहब की इस प्रकार की जितनी रचनाएँ हैं वे सिद्धों की रचनात्रों के अनुकरण से लिखी गयी हैं। सिद्धों ने योग और ज्ञान सम्बन्धी बातें भी अपने ढंग से कही हैं। उनकी अनेक रचनाओं पर उनका प्रभाव भी देखा जाता है। जून सन् १६३१ की सरस्वती के अंक में प्रकाशित 'चौरासी सिद्ध' नामक लेख में बहुत कुछ प्रकाश इस विषय पर डाला गया है। विषय बोध के लिये उसका कुछ अंश मैं आप लोगों के सामने उपस्थित करता हूं- _ "इन सिद्धों की कविताएँ एक विचित्र अाशय की भाषा को लेकर होती हैं। इस भाषा को संध्या भाषा कहते हैं, जिसका अर्थ अँधेरे ( वाम माग ) में तथा उँजाले ( ज्ञान मार्ग, निगुण ) दोनों में लग सके । संध्या भाषा को आज कल के छायावाद या रहस्यवाद' की भाषा समझ सकते हैं।"
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