पृष्ठ:रस साहित्य और समीक्षायें.djvu/१५१

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१५२ कबीर साहब ] [ 'हरिऔध' भगवान कृष्णचन्द्र और हिन्दू देवताओं के विषय में जैसे घृणित भाव उन्होंने फैलाये, उनके अनेक पद इसके प्रमाण हैं । परन्तु मैं उनको यहाँ उठाना नहीं चाहता, क्योंकि उन पदों में अश्लीलता की पराकाष्ठा है। उनकी रचनात्रों में योग, निगुण-ब्रह्म और उपदेश एवं शिक्षा सम्बन्धी बड़े हृदयग्राही वर्णन हैं । मेरा विचार है कि उन्होंने इस विषय में गुरु गोरखनाथ और उनके पदाधिकारी महात्मात्रों का बहुत कुछ अनुकरण किया है । गुरु गोरखनाथ का ज्ञानवाद और योगवाद ही कबीर साहब के निगुणवाद का स्वरूप ग्रहण करता है। मैं अपने इस कथन को पुष्टि के लिए गुरु गोरखनाथ की पूर्वोद्धृत रचनाओं की अोर आप लोगों की दृष्टि फेरता हूं और उनके समकालीन एवं उत्तराधिकारी नाथ सम्प्रादाय के प्राचार्यों की कुछ रचनाएँ भी नीचे लिखता हूँ-- १-थोड़ो खाय तो कलपै झलपै, घणों खाय तो रोगी। दुहूँ पर वाकी संधी विचारै. ते को बिरला जोगी ॥ यहु संसार कुवधि का खेत, जब लगि जीवै तब लगि चेत । आख्याँ देखै काण सुणै, जैसा बाहै तैसा लुणे ॥ जलन्धर नाथ। २-मारिबा तौ मनमीर मारिबा, लूटिबा पवन भँडार । साधिबा तौ पंचतत्त साधिबा, सेइबा तौ निरंजन निरंकार माली लौं भल माली लौं, साँचै सहज कियारी । उनमनि कला एक पहूपनि, पाइले आवा गवन निवारी॥ चौरंगी नाथ । ३--पाछै आछै महिरे मंडल कोई सूरा । मारया मनुवाँ नएँ समझावै रे लो ॥ देवता ने दाणवां एणे मन ब्याह्या । मनवा ने कोई ल्यावै रे लो ॥