कबीर साहब १४८ , [ 'हरिऔध' पद्यों में आये हुए नकार पंजाब के लेखकों की लेखनी द्वारा णकार बन जाये तो कोई आश्चर्य नहीं। आदि ग्रन्थ साहब में भी देखा जाता है कि प्रायः कबीर साहब की रचनाओं के नकार ने णकार का स्वरूप ग्रहण कर लिया है, यद्यपि इस विशाल ग्रन्थ में उनकी भाषा अधिकतर सुरक्षित है। इस प्रकार के साधारण परिवर्तन का भी मुख्य भाषा पर कोई प्रभाव नहीं पड़ता। इसलिए कबीर साहब की रचनाओं में जहाँ ऐसा परिवर्तन दृष्टिगत हो उसके विषय में यह न मान लेना चाहिये कि जो शब्द हिन्दी रूप में लिखा जा सकता था उसको उन्होंने ही पंजाबी रूप दे दिया है, वरन् सच तो यह है कि उस परिवर्तन में पंजाबी लेखक की लेखनी की लीला हो दृष्टिगत होती है। कबीर साहब कवि नहीं थे। वे भारत की जनता के सामने एक पौर के रूप में आये । उनके प्रधान शिष्य धर्मदास कहते हैं- आठवीं आरती पीर कहाये । मगहर अमी नदी बहाये। मलूकदास कहते हैं:- तजि कासी मगहर गये दोऊ दीन के पीर * झाँसी के शेख़ तकी ऊँजी और जौनपुर के पीर लोग जो काम उस समय मुसलमान धर्म के प्रचार के लिये कर रहे थे, काशी में कबीर साहब लगभग वैसे ही कार्य में निरत थे। अन्तर केवल इतना ही था कि वे लोग हिन्दुओं को नाना रूप से मुसलमान धर्म में दीक्षित कर रहे थे और कबीर साहब एक नवीन धर्म की रचना करके हिन्दू-मुसलमान को एक करने के लिए उद्योगशील थे। ठीक इसी समय यही कार्य बंगाल में हुसेन शाह कर रहे थे जो एक मुसलमान पीर थे और जिसने अपने नवीन धर्म का नाम सत्य पीर रख लिया था। कबीर साहब के समान
- हिन्दुस्तानी, अक्टूबर सन् १९३२, पृ० ४५१ ।