कबीर साहब १४६ [ 'हरिऔध' बात यह है कि कबीर ग्रन्थावली की अधिकांश रचनाएँ इसी भाषा की हैं। उसके अधिकतर पद ऐसी ही भाषा में लिखे पाए जाते हैं। बहुत से ट्रोहों की भाषा का रूप भी यही है। इसलिए मुझे यह कहना पड़ता है कि कबीर साहब की रचनाएँ पन्द्रहवीं शताब्दी के अनुकूल हैं। आप देखते आये हैं कि क्रमशः हिन्दी भाषा परिमार्जित होती आयी है। जैसा उसका परिमार्जित रूप पन्द्रह्वीं शताब्दी को अन्य रचनाओं में मिलता है; वैसा ही कवीर साहब की रचनाओं में भी पाया जाता है। इसलिए मुझे यह कहना पड़ता है कि उनकी रचनाएँ पन्द्रहवीं शताब्दी के भाषाजनित परिवत्त न सम्बन्धी नियमों से मुक्त नहीं हैं, वरन् क्रमिक परिवर्तन की प्रमाण भूत हैं । हाँ, उनमें कहीं-कहीं प्रान्तिकता अवश्य पायी जाती है और पश्चिमी हिन्दी से पूर्वी हिन्दी का प्रभाव उनकी रचना पर अधिक देखा जाता है। किन्तु यह आश्चर्य-जनक नहीं। क्योंकि भाषा में कविता करने का सूत्रपात विद्यापति के समय में ही हुआ था जिसकी चर्चा पहले हो चुकी है। मैं यह स्वीकार करूँगा कि कबीर साहब की रचनाओं में पंजाबी और राजस्थानी भाषा के कुछ शब्दों, क्रियाओं और कारकों का प्रयोग मिल जाता है। किन्तु, उसका कारण उनका विस्तृत देशाटन है जैसा मैं पहले कह भी चुका हूं। अपनी मुख्य भाषा में इस प्रकार के कुछ शब्दों का प्रयोग करते सभी संत कवियों को देखा जाता है और यह इतना असंगत नहीं जितना अन्य भाषा के शब्दों का उतना प्रयोग जो कवि की मुख्य भाषा के वास्तविक रूप को संदिग्ध बना देता है। मैंने कबीर ग्रंथावली से जो पद और दोहे पहले उठाये हैं उनकी भाषा ऐसी है जो कबीर साहब की मुख्य भाषा की मुख्यता का लोप कर देती है। इसीलिए मैं उनको शुद्ध रूप में लिखा गया नहीं समझता। परन्तु उनकी जो ऐसी रचनाएँ हैं जिसमें उनका मुख्य रूप सुरक्षित
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