पृष्ठ:रस साहित्य और समीक्षायें.djvu/१४३

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कबीर साहब.] १४४ [ 'हरिऔध' बिगरेउ कबीरा राम दोहाई , साचु भयो अन कतहिं न जाई। चन्दन के सँग तरवर बिगरेउ , सो तरुवरु चन्दन होइ निबरेउ । पारस के सँग ताँबा बिगरेउ , सो ताँबा कंचन होइ निबरेउ । संतन संग कबीरा बिगरेउ , सो कबीर रामै होइ निबरेउ । २-सभु कोइ चलन कहत हैं ऊहाँ, ना जानौं वैकुण्ठ है कहाँ । आप आप का मरम न जाना, बात नहीं बैकुण्ठ बखाना । जब लगु मन बैकुण्ठ की आस, तब लग नाहीं चरन निवास । खाई कोटु न परल पगारा, ना जानउँ बैकुण्ठ दुवारा। कह कबीर अब कहिये काहि, साधु संगति बैकुण्ठे आहि । सभा की प्रकाशित ग्रंथावली में भी इस प्रकार की रचनाएँ मिलती हैं। मैं यहाँ यह भी प्रकट कर देना चाहता हूं कि सिक्खों के आदि ग्रन्थ साहब में कबीर साहब की जितनी रचनाएँ संगृहीत हैं वे सब उक्त ग्रन्थावली में ले ली गयी हैं। उनमें वैसा परिवर्तन नहीं पाया जाता है जैसा सभा के सुरक्षित ग्रन्थ की रचनाओं में मिलता है। मैं यह भी कहूँगा कि उक्त सुरक्षित ग्रन्थ की पदावली उतनी परिवर्तित नहीं है जितने दोहे । अधिकांश पदावली में कबीर साहब की रचना का वही