पृष्ठ:रस साहित्य और समीक्षायें.djvu/१४२

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कबीर साहब ] १४३ [ 'हरिऔध' विचार की ही झलक है। यदि सृष्टि की आदि की बोली का यह भाव है कि उस काल की भाषा में कबीर साहब की रचनाएँ हैं, तो यह भी युक्तिसंगत नहीं, क्योंकि जिस भाषा में उनकी रचनाएँ हैं, वह कई सहन वर्षों के विकास और परिवर्तनों का परिणाम है। इसलिए यह कथन मान्य नहीं। वास्तव बात यह है कि कबीर साहब की रचनाएँ पूर्व की बोली में ही हैं और यही उनके उक्त कथन का भाव है । अधिकांश रचनाएँ उनकी ऐसी ही हैं भी। सभा द्वारा प्रकाशित ग्रन्थ के पहले उनकी जितनी रचनाएँ प्रकाशित हुई हैं या हस्तलिखित मिलती हैं, या जन-साधारण में प्रचलित हैं उन सब की भाषा अधिकांश पूर्वी ही है। हाँ, सभा द्वारा प्रकाशित ग्रन्थ का कुछ अंश अवश्य इस विचार का बाधक है । परन्तु मैं यह सोचता हूँ कि जिस प्राचीन-लिखित ग्रन्थ के आधार से सभा की पुस्तक प्रकाशित हुई है उसके लेखक के प्रसाद ही से कबीर साहब की कुछ रचनात्रों की भाषा में विशेष कर बहुसंख्यक दोहों में उल्लेख-योग्य अन्तर पड़ गया है। प्रायः लेखक जिस प्रान्त का होता है अपने संस्कार के अनुसार वह लेख्यमान ग्रन्थ की भाषा में अवश्य कुछ न कुछ अन्तर डाल देता है। यही इस ग्रन्थ-लेखन के समय भी हुअा ज्ञात होता है अन्यथा कबीर साहब की भाषा का इतना रूपान्तर न होता। मैं कबीर साहब की भाषा के विषय में विचार उन्हीं रचनात्रों के आधार पर करूँगा जो सैकड़ों वर्ष से मुख्य रूप में उनके प्रसिद्ध धर्म स्थानों में पायी जाती हैं, अथवा सिक्खों के आदि ग्रन्थ साहब में संगृहीत मिलती हैं। यह ग्रन्थ सत्रवहीं ईस्वी शताब्दी में श्री गुरु अर्जुन द्वारा संकलित किया गया है। इसलिए इसकी प्रामाणिकता विश्वसनीय है। कुछ ऐसी रचनाएँ देखिये:- १-गंगा के संग सरिता बिगरी, सो सरिता गंगा होइ निवरी।