कबीर साहब ] १४१ [ 'हरिऔध' है कि वे इस काल के एक प्रसिद्ध सन्त हैं और उनकी बानियों का प्रभाव बहुत ही व्यापक बतलाया गया है। कबीर साहब की रचनाओं में रहस्य- वाद भी पाया जाता है जिसको अधिकांश लोग उनके चमत्कारों से सम्बन्धित करते हैं और यह कहते हैं कि ऐसी रचनाएँ उनका निजस्व है जो हिन्दी संसार की किसी कवि की कृति में नहीं पायी जातीं। इस सूत्र से भी कबीर साहब की रचनात्रों के विषय में कुछ लिखना उचित ज्ञात होता है, क्योंकि यह निश्चित करना है कि इस कथन में कितनी सत्यता है । विचारना यह है कि क्या वास्तव में रहस्यवाद कबीर साहब की उपज है या इसका भी कोई आधार है । काशी नागरी प्रचारिणी सभा ने 'कबीर-ग्रंथावली' नामक एक ग्रंथ कुछ वर्ष हुए, एक प्राचीन ग्रंथ के आधार से प्रकाशित किया है। यह प्राचीन ग्रंथ सम्वत् १५६१ का लिखा हुआ है और अब तक उक्त सभा के पुस्तकालय में सुरक्षित है। जो ग्रन्थ सभा से प्रकाशित हुआ है उससे कुछ पद्य नीचे इसलिए उद्धृत किये जाते हैं, जिसमें उनकी रचना की भाषा के विषय में कुछ विचार किया जा सके:- १-पूण पराया न छुटियो, सुणिरे जीव अबूझ । कविरा मरि मैदान मैं इन्द्रय्यांसू जूझ ॥ २-गगन दमामा बाजिया पया निसाणे घाव । खेत बुहास्या सूरिवाँ मुझ मरने का चाव ।। ३-जाइ पूछौ उस घाइलैं दिवस पीड़ निस जाग। बाहण हारा जाणि है के जाणै जिस लाग ॥ ४-अवधू कामधेनु गहि बाँधी रे। भाँडा भंजन करै सबहिन का कळू न सूझै आँधी रे ।
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