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छायावाद ] १३६ [ 'हरिऔध' मैंने इसकी चर्चा यहाँ इसलिए की कि यदि छायावाद की रचना ही सर्वेसर्व है, तो इसमें इन भावों का सन्निवेश भी पर्याप्त मात्रा में होना चाहिये, अन्यथा हिन्दी-साहित्यक्षेत्र में एक ऐसी न्यूनता हो जायेगी, जो युवकों के एक उल्लेख-योग्य दल को भ्रान्त ही नहीं बनायेगी, देश के समुन्नति-पथ में भी कुसुम के बहाने वे काँटे बिछायेगी जो भारतीय- हित-प्रेमिक पथिकों के लिए अनेक असमंजसों के हेतु होंगे। मैंने जो विचार एक सदुद्देश्य से यहाँ प्रकट किये हैं यदि कार्यतः उनको भ्रान्त सिद्ध कर दिया जायेगा तो मैं अपना अहोभाग्य समझूगा।