छायावाद ] १३७ ['हरिऔध' वस्तु अथवा किसी व्यक्ति-विशेष के समान अंकित करते हैं । कभी वे अपनी ही सत्ता को प्रत्येक पदार्थ में देखते हैं और उसके आधार से अपने समस्त अान्तरिक उद्गारों को प्रकट करते हैं। उनकी वेदनाएँ तड़पती हैं, रोती कलपती हैं, कभी मूर्तिमयी अाह बन जाती हैं और कभी जलधरों के समान अजस्स अश्रु विसर्जन करने लगती हैं। उनकी नीरवता में राग है, उनके अन्धकार में अलौकिक आलोक और उनकी निराशा में अद्भुत आशा का संचार । वे ससीम में असीम को देखते हैं, विन्दु में समुद्र की कल्पना करते हैं, और प्राकाश में उड़ने के लिए अपने विचारों को पर लगा देते हैं। आलोकमयी रजनी को कलित कौमुदी को साड़ी पहिना कर और तारकावली की मुक्कामाला से सुसज्जित कर, जब उसे चन्द्रमुख से सुधा बरसाते हुए वे किसी लोकरंजन की ओर गमन करते अंकित करते हैं, तो उसमें एक लोक- रंजिनी नायिका-सम्बन्धिनी समस्त लीलात्रों और कलात्रों को कल्पना कर देते हैं, और इस प्रकार अपनी रचनात्रों को लालित्यमय बना देते हैं। उनकी प्रतिमा विश्वजनीन भावों की अोर कभी मन्थर गति से, कभी बड़े वेग से गमन करती है और उनके समागम से ऐसा रस सृजन करती है, जो अनेक रसिकों के हृदय में मन्द-मन्द प्रवाहित होकर उसे स्वर्गीय सुख का प्रास्वादन कराती है। थोड़े में यह कहा जा सकता है कि उनकी रचना अधिकतर भाव प्रधान होती है, भाव प्रधान (Subjective) होती है, वस्तु प्रधान (objective) नहीं। इसीसे उसमें सरसता, मधुरता, और मनमोहकता होती है । मैंने उनके लक्ष्य की ही बात कही हैं। मेरे कथन का यह अभिप्राय नहीं कि छायावाद के नाम पर जितने कविता करनेवाले हैं, उनको इस लक्ष्य की अोर गमन करने में पूरी सफलता मिलती है । छायावाद के कुछ प्रसिद्ध कवि ही इस लक्ष्य को सामने रखकर अपनी रचना को तदनुकूल बनाने में कुछ सफल हो सके हैं। अन्यों के लिए अबतक वह वैसा ही है जैसा किसी वामन का चन्द्रमा को छूना। किन्तु इस ओर अधिक प्रवृत्ति होने से इन्हीं में से ऐसे लोग उत्पन्न होंगे जो वास्तव
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