छायावाद ] १३६ [ 'हरिऔधर वाली कविता की गुत्थी सुलझाने पर मिलता है। किन्तु यह गिरह या गाँठ दिल की गाँठ न हो जिसमें रस का प्रभाव होता है। सुनिये एक. सुकवि क्या कहता है:- सम्मन रस की खान, सो हम देखा ऊख में । ताह में एक हानि, जहाँ गाँठ तहँ रस नहीं । कविता यदि द्राक्षा न बन सके तो रसाल ही बने, नारिकेल कदापि नहीं । साहित्य-मर्मज्ञों की यही सम्मति है। किसी-किसी का यह कथन है कि भावावेश कितनों को दुरूहतर कविता करने के लिए बाध्य करता है । मेरा निवेदन यह है कि यह भावावेश किस काम का जो कविता के भाव को अभाव में परिणत कर दे। भावुकता और सहृदयता की सार्थ- कता तभी है जब वह असहृदय को भी सहृदय बना ले। जिसने सहृदय को असहृदय बना दियाँ वह भावुकता और सहृदयता क्या है इसे सह- दय जन ही समझे। छायावाद की कविताएँ व्यंजना और ध्वनि-प्रधान होती हैं । वाच्यार्थ से जहाँ व्यंजना प्रधान हो जाती है वही ध्वनि कहलाती है। छायावाद की कविता में इसकी अधिकता मिलती है। इसीलिये वह अधिक हृदय- ग्राहिणी हो जाती है। छायावादी कवि किसी बात को बिलकुल खोल कर नहीं कहना चाहते। वे उसको इस प्रकार से कहते हैं जिससे उसमें एक ऐसी युक्ति पायी जाती है जो हृदय को अपनी ओर खींच लेती है। वे जिस विषय का वर्णन करते हैं उसके ऊपरी बातों का वर्णन करके ही तुष्ट नहीं होते। वे उसके भीतर घुसते हैं और उससे सम्बन्ध रखनेवाली तात्विक बातों को इस सुदरता से अंकित करते हैं जिससे उनकी रचना मुग्धकारिणी बन जाती है । वे अपनी आन्तरिक वृत्तियों को कभी साकार मानकर उनकी बातें एक नायक-नायिका की भाँति कहते हैं, कभी सांसारिक दृश्य पदार्थों को लेकर उसमें कल्पना का विस्तार करते हैं और उसको किसी देव-दुर्लभ
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