छायावाद ] १३५ [ 'हरिऔध' षता है वह स्वीकार-योग्य है, उपेक्षणीय नहीं। कला का अादर कला की दृष्टि में होना चाहिये। यदि उसमें उपयोगिता मिल जाय तो क्या कहना। तब उसमें सोना और सुगंधवाली कहावत चरितार्थ हो जाती है। कवि-कर्म का विशेष गुण वाच्यार्थ की स्पष्टता है। प्रसाद गुणमयी कविता ही उत्तम समझी जाती है। वैदर्भी वृत्ति का ही गुणगान अब तक होता आया है। किन्तु यह देखा जाता है कि छायावादी कुछ कवि इसकी उपेक्षा करते हैं और जान बूझ कर अपनी रचनाओं को जटिल से जटिल बनाये हैं, केवल इस विचार से कि लोग उसको पढ़ कर यह समझे कि उनकी कविता में कोई गूढ़ तत्व निहित है । और इस प्रकार उनको उच्च कोटि का रहस्यवादी कवि होने का गौरव प्राप्त हो। ऐसा इस कारण से भी होता है कि किसी किसी का भावोच्छवास उनको उस प्रकार की रचना करने के लिए बाध्य करता है । वे अपने विचारानुसार उसको बोधगम्य ही समझते हैं, पर भाव-प्रकाशन में अस्पष्टता रह जाने के कारण उनकी रचना जटिल बन जाती है। कवि- कर्म की दृष्टि से यह दोष है। इससे बचना चाहिये। यह सच है कि गूढ़ता भी कविता का एक अंग है । गम्भीर विषयों का वर्णन करने में या अज्ञेयवाद की ओर आकर्षित होकर अनुभूत अंशों के निरूपण करने में गूढता अवश्य या जाती है किन्तु उसको बोधगम्य अवश्य होना चाहिये। यह नहीं कि कवि स्वयं अवनी कविता का अर्थ करने में असमर्थ हो । वर्तमान काल की अनेक छायावादी कविताएँ ऐसी हैं कि जिनका अर्थ करना यदि असंभव नहीं तो बहुकष्ट साध्य अवश्य है । मेरा विचार है, इससे छायावाद का पथ प्रशस्त होने में स्थान पर अप्रशस्त होता जाता है। यह स्वीकार करना पड़ेगा कि कविता में कुछ ऐसी गिरह होनी चाहिये जिसके खोलने की नौबत आये। जो कविता बिल्कुल खुली होती है उसमें वह आनन्द नहीं प्राप्त होता, जो गिरह
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