पृष्ठ:रस साहित्य और समीक्षायें.djvu/१३१

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छायावाद] १३२ [ 'हरिऔध' भावान पुरुषों की चिन्ताशीलता का ही परिणाम हैं । वह क्रमशः उन्नत होता और सुधरता आया है और नयी-नयी उद्भावनाओं से भी लाभ उठता आया है। अब भी इस विषय में वह बहुत कुछ गौरवित हो सकता है, यदि उसको सुदृष्टि से देखा जाय । चाहिये यही कि उसका मार्ग और सुन्दर बनाया जाय यह नहीं कि उसमें काँटे बिछाये जाय और उच्छृखलता को स्वतन्त्रता कह कर उसकी बची-खुची प्रतिष्ठा को भी पद- दलित किया जाये। परमात्मा ने जिसको प्रतिभा दी है, कविता-शक्ति दी है, विद्वत्ता दी है, और प्रदान की है वह मनमोहिनी शक्ति जो हृदयों में सुधाधारा बहाती है, वह अवश्य राका-मयंक के समान चमकेगा और उसकी कीति-कौमुदी से साहित्य-गगन जगमगा उठेगा और वे तारे जो चिरकाल से गगन को सुशोभित करते आये हैं अपने आप उसके सामने मलिन हो जायेंगे। वह क्यों ऐसा सोचे कि अाकाश के तारक-न्वय को ज्योतिर्विहीन बनाकर ही हम विकास प्राप्त कर सकेंगे। हिन्दी-साहित्य की वर्तमान परिस्थिति को देखकर मुझको ये कतिपय पंक्तियाँ लिखनी पड़ी। मेरा अभिप्राय यह है कि साहित्य-क्षेत्र में जो अवांछनीय-असंयत भाव देखा जा रहा है उसकी ओर हमारी भगवती वीणापाणि के वर पुत्र देखें और वह पथ ग्रहण करें जिसमें सरसता से बहती हुई साहित्य-रस की धारा प्राविल होने से बचे और । उनके 'छायावाद' की रचनाओं को वह महत्व प्राप्त हो जो वांछनीय है। यह देखा जाता है कि आजकल युवक-दल अधिकतर छायावाद की रचनाओं की ओर आकर्षित है। युवक-दल ही समाज का नेता है। वही भविष्य को बनाता है और सफलता की कुंजी उसी के हाथ में होती है। उसके छायावाद की ओर खिंच जाने से उसका भविष्य बड़ा उज्ज्वल है, किन्तु उसको यह विचारना होगा कि क्या हिन्दी भाषा के चिर-संचित भांडार को ध्वंस कर और उस भाण्डार के धन के संचय करनेवालों की कीर्ति को लोप कर ही यह उज्ज्वलता प्राप्त