छायावाद ] [ 'हरिऔध' कवियों ने खड़ी बोलचाल की कर्कशता और क्लिष्टता को बहुत कम कर दिया है। जैसे प्राचीन खड़ी बोली की रचनाओं का यह गुण है कि उन्होंने भाषा को बहुत परिमार्जित और शुद्ध बना दिया, उसी प्रकार छायावादी कविता का यह गुण है कि उसने कोमल कान्त पदावली ग्रहण कर खड़ी बोलचाल की कविता के उस दोष को दूर कर दिया जो सहृदयजनों को कांटों की तरह खटक रहा था। ___संसार में जितनी विद्याएँ हैं, सब नियम-बद्ध हैं । जितनी कलाएँ हैं सब सीखनी पड़ती हैं। उनकी भी रीति और पद्धतियाँ हैं। उनकी उपेक्षा करना विद्या और कला को आघात पहुँचाना है। साहित्य का सम्बन्ध विद्या और कला दोनों से है। इसलिये उसकी जो पद्धतियाँ हैं उनका त्याग नहीं किया जा सकता। उनको परिवर्तित रूप में ग्रहण करें अथवा मुख्य रूप में, परन्तु उनके ग्रहण से ही कार्य-सिद्धि-पथ प्रशस्त हो सकता है। साहित्य यदि साध्य है तो नियम उसके साधन हैं । इसलिये उनको अनावश्यक नहीं कहा जा सकता। प्रत्येक प्रतिभा- वान पुरुष नयी उद्भावनाएँ कर सकता है, और ये उद्भावनाएँ भी साधना में गिनी जा सकती हैं । परन्तु उनका उद्देश्य साध्यमूलक होगा, अन्यथा वे उद्भावनाएं उपयोगिनी न होंगी। गद्य लिखने के लिये छन्द की आवश्यकता नहीं। किन्तु पद्य लिखें और यह कहें कि छन्द प्रणाली व्यर्थ है तो पद्य-रचना हुई कैसे ? कुछ नियमित अक्षरों और मात्रात्रों में जो रचना होती है वही तो पद्य कहलाता है। यह दूसरी बात है कि पद्य की पंक्तियों और अक्षरों की गणना प्रथम उद्भावित छन्दः-प्रणाली से भिन्न हो । किन्तु वह भी है छन्द हो, कोई अन्य वस्तु नहीं। ऐसी अवस्था में छन्द की कुत्सा करना मूल पर ही कुठारा- घात करना है और उसी डाल को काटना है जो उसकी अवलम्बन स्वरूपा है। ऐसी बातें साहित्य के और अंगों के विषय में भी कही जा सकती हैं। हिन्दी साहित्य का जो वर्तमान रूप है वह अनेक प्रति-
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