छायावाद ] १२६ [ 'हरिऔध' विचार-सूत्र में गूंथते हैं और फिर उसे सहृदयता सुन्दरी के गले का हार बनाते है। इस कला में जो जितना पटु होता है, कार्य-क्षेत्र में उसको उतनी ही सफलता हाथ पाती है। उसकी कृतियाँ भी उतनी ही हृदय-ग्राहिणी और सार्वजनीन होती हैं। इसलिये परिणाम भी भिन्न- भिन्न होता है। जो जितना ही आवरण हटाता है, जितना ही विषय को स्पष्ट करता है, जितना ही दुर्बोधता और जटिलताओं का निवारण करता है, वह उतना ही सफलीभूत और कृतकार्य समझा जाता है। यह सच है कि ऐसे भाग्यशाली सब नहीं होते। समुद्र में उतरकर सभी लोग मुक्ता लेकर ऊपर नहीं उठते। अधिकांश लोग घोंघे, सिवार पाकर ही रह जाते हैं। किन्तु इससे उद्योगशीलता और अनु- शीलन परायणता को व्याघात नहीं पहुँचता । रहस्य की ओर संकेत किया जा सकता है, उसका अाभास सामने लाया जा सकता है । हृदय दर्पण पर जो प्रतिबिम्ब पड़ता है, अन्तदृष्टि उसकी ओर खींची जा सकती है। क्या यह कम सफ़लता है ? मनुष्य की जितनी शक्ति है, उस शक्ति से यथार्थ रीति से, काम लेने से मनुष्यता की चरितार्थता हो जाती है। और चाहिये क्या ? रहस्य-भेद किसने किया ? परमात्मा को लाकर जनता के सामने कौन खड़ा कर सका ? तथापि संसार के जितने महाजन हैं, उन्होंने अपने कर्तव्य का पालन किया जिससे अनेक गुत्थियाँ सुलझीं । अब भी उद्योग करने से और बुद्धि से यथार्थता पूर्वक कार्य लेने से कितनी गुत्थियाँ सुलझ सकती हैं। इन गुत्थियों के सुलझाने में अानन्द' है, तृप्ति है. और है वह अलौकिक फल-लाभ जिससे मनुष्य जीवन स्वर्गीय बन जाता है। रहस्यवाद की रचनाओं की ओर प्रवृत्त होने का उद्देश्य यही है । जो लोग इस तत्व को यथार्थ रीति से समक्ष कर उसकी ओर अग्रसर होते हैं वे वन्दनीय हैं और उनकी कार्यावली अभिनन्दनीय है। उनका विरोध नहीं किया जा सकता । आधिभौतिक और आध्यात्मिक जितने कार्य-कलाप हैं
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