छायावाद] १२७ [ 'हरिऔध' प्रातकाल फूल हँसते हैं। क्यों हँसते हैं ? यह कौन जाने । वे रंग लाते हैं, महकते हैं, मोती जैसी बूदों से अपनी प्यास बुझाते हैं, सुनहले तारों से सजते हैं, किस लिए ! यह कौन बतलावे । एक कालाकलूटा आता है, नाचता है, गीत गाता है, भांवरें भरता है, मुकता है, उनके कानों में न जाने क्या क्या कहता है, रस लेता है और झूमता हुआ आगे बढ़ता है क्यों ? रंग-बिरंगी साड़ियाँ पहने, ताकती झांकती अठखेलियाँ करती, एक रँगीली अाती है, उनसे हिलती मिलती है, रंग-रलियां मनाती है, उन्हें प्यार करती है, फिर यह गयी, वह गयी, कहाँ गयी, कौन कहे १ कोई इन बातों का ठीक ठीक उत्तर नहीं दे सकता। अपने मन की सभी सुनाता है, पर पत्ते की बात किसने कही। आँख उठा कर देखिये, इधर-उधर, हमारे आगे-पीछे, पल-पल ऐसी अनन्त लीलाएँ होती रहती हैं, परन्तु भेद का परदा उठानेवाले कहाँ हैं ? यह तो बहिर्जगत की बातें हुई। अन्त- जंगत और विलक्षण है। वहाँ एक ऐसा खिलाड़ी है जो हवा को हवा बतलाता है, पानी में आग लगाता है, आसमान के तारे तोड़ता है, प्राग चबाता है, धरती को धूल में मिलाता है, स्वर्ग में फिरता है, नन्दनबन के फूल चुनता है और बैकुण्ठ में बैठ कर ऐसी हँसी हँसता है कि जिधर देखो उधर बिजली कौंधने लगती है। संसार उसकी कल्पना है, कार्यकलाप, केलि और उत्थान-पतन रंग-रहस्य । उसके तन नहीं, परन्तु भव का ताना-बाना उसी के हाथों का खेल है। वह अन्धा है, किन्तु वही तीनों लोकों की आँखों का उजाला है। वह देवताओं के दाँत खट्ट करता है, लोक को उँगलियों पर नचाता है और उन गुत्थियों को सुलझाता है जिनका. सुलझाना हँसा खेल नहीं । जहाँ वह रहता है, वहाँ की वेदनात्रों में मधुरिमा है, ज्वालाओं में सुधा है, नीरवता में राग है, कुलिशता में सुमनता है और है गहनता में सुलभता । वहाँ चन्द्र नहीं, सूर्य नहीं, तारे नहीं, किन्तु वहाँ का आलोक विश्वालोक है। वहाँ बिना तार की
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