छायावाद ] १२४ [ 'हरिऔध' कि इन दोनों की रचनाएँ सूफ़ी से ही प्रभावित हैं । जायसी के अनुकरण में बाद को जितने प्रबंध-ग्रंथ मुसल्मान कवियों द्वारा लिखे गये हैं - उनमें भी रहस्यवाद' का रंग पाया जाता है। जब देखा गया कि इस प्रकार की रचनाएँ समय के अनुकूल हैं और वे प्रतिष्ठा का साधन बन सकती हैं तो कोई कारण नहीं था कि कुछ लोग उनकी ओर आकर्षित न होते । इस शताब्दी के प्रारम्भ में सूफियाना ख़याल को जितनी उर्दू रचनाएँ हुई हैं उनका प्रभाव भी ऐसे लोगों पर कम नहीं पड़ा। इसके अतिरिक्त इस प्रकार की रचनाएँ शृगाररस का नवीन संस्करण भी हैं । जब देश में देश-प्रेमका राग छिड़ा और ऐसी रचनाएँ होने लगी जो सामयिक परिवर्तनों के अनुकूल थीं और शृंगार रस की कुत्सा होने लगी तो उसका छायावाद की रचना के रूप में रूपान्तरित हो जाना स्वाभाविक था । एक और बात है। वह यह कि जब वर्णनात्मक अथवा वस्तु प्रधान ( Objective) रचनात्रों का बाहुल्य हो जाता है तो उसकी प्रतिक्रिया भावात्मक अथवा भाव प्रधान (Subjective ) रचनाओं के द्वारा हुए बिना नहीं रहती। दूसरी बात यह है कि व्यंजना और ध्वनि प्रधान काव्य ही का साहित्य-क्षेत्र में उच्च स्थान है। इसलिए चिंताशील मस्तिष्क और भाव- प्रवण हृदय इस प्रकार की रचनात्रों की अोर ही अधिक खिंचता है। यह स्वाभाविकता भी है। क्योंकि वर्णनात्मक रचना में तरलता होती है और भावात्मक रचनाओं में गंभीरता और मोहकता। ऐसी दशा में इस प्रकार की रचनाओं की ओर कुछ भावुक एवं सहृदय जनों का प्रवृत्त हो जाना आश्चर्यजनक नहीं। क्योंकि प्रवृत्ति ही किसी कार्य का कारण होती है। छायावाद की कविताओं के विषय में भी यही बात कही जा सकती है। 'छायावाद' शब्द कहाँ से कैसे आया, इस बात की अब तक मीमांसा न हो सकी। छायावाद के नाम से जो कविताएँ होती हैं उनको कोई 'हृदयवाद' कहता है और कोई प्रतिबिम्बवाद । अधिक- तर लोगों ने छायावाद के स्थान पर रहस्यवाद कहने की सम्मति ही
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